स्नातकोत्तर हिन्दी - शिक्षण कार्य - शिविर | Snatakottar Hindi - Shikshan Karya - Shivir

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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১ उत्तरदायित्व का निर्वाह नहीं कर पाते। समुचित विचार और उचित निर्देशन के अभाव में शोध- प्रबन्ध उत्कृष्ट नहीं हो पाते । हम निष्कर्षों को किस प्रकार अन्य विश्वविद्यालयों में लाग॒ कर सकेंगे यह मी एक समस्या है । एक ही विषय पर करई विश्वविद्यालयों में शोध होना अच्छा नहीं कहा जा सकता । हिन्दी का स्तर अन्य भाषाभाषियों के समक्ष ऊँचा उठाना है, जिससे हमें लज्जित न होना पड़े। कई विश्वविद्यालयों में चार प्रश्नपत्र और एक थीसिस पर एम० ए० की डिग्री मिल ` जाती है। छात्रों की कठिनाइयों की दृष्टि से पाठ्यक्रम में सरलीकरण करना भी एक समस्या है, हम कहाँ तक इसे सरल करते जाय॑ँगे! निष्कषं निकालना सरल है, लाग्रू करना : महिकल। * व श्री राधाकृष्ण मुदलियार ने कहा : हमे अतीत, वतमान भौर भविष्य तीनों के साहित्य को पढ़ना चाहिए । बिना अतीत के वतमान बनता है क्या? बिना वर्तमान के हमारा भविष्य बनता है क्या? भाषा एक दिन में बनती है क्या ? कर्नाटक विश्वविद्यालय में प्राचीन, मध्य, आधुनिक युगों का साहित्य है; भाषा-विज्ञान, निबन्ध, आलोचना सब कुछ है।. . .शोध-कार्य के विषय में प्रयत्न किया जाय कि पूर्वाग्रहपुर्ण वातावरण न रहे। भारत में सांस्कृतिक एकता नहीं है क्या ? तब उसके लिए प्रयत्न होना नहीं चाहिए क्या ? कर्नाटक में बारह लोग शोध- कायं कर रहे हैं। सबका विषय तुलनात्मक है। कन्नड़ और हिन्दी साहित्य की तुलना। . डॉ० रामनिरंजन पाण्डेय की मान्यता थी कि एक विषय पर कला के क्षेत्र में सौ बार शोध सम्भव है, विज्ञान में अवश्य एक ही बार हो सकती है। पर मौलिक ढंग से समस्याओं को लेना होगा। केवल एप्रोच भिन्न होना चाहिए। एक ही विषय पर दो शोध-प्रबन्ध फिर तैयार हो सकते हैं। आजकल अन्य विषयों में अनुसन्धाताओं में मौलिक प्रवृत्ति नहीं होती और इस हीन भावना के कारण उनमें अधिक डॉक्टर नहीं बनते | यदि अन्य विषयों की भाषा हिन्दी हो, तो उनमें भी अधिक डॉक्टर होंगे। हिन्दी में अधिक ,अनुसन्धान-कार्य होने का कारण है। अनु- सन्धान का माध्यम अपनी ही माषा है। अन्य विषयों में अनुसन्धान कम इसलिए हो रहा है कि माध्यम अंग्रेजी है। अधिक डाक्टरों का होना भयप्रद नहीं है। स्नातकोत्तर परीक्षाओं के पाठय- क्रम का स्तर निश्चित होना चाहिए। प्रत्येक विधा और प्रत्येक युग की स्थिति का ज्ञान आवश्यक है । स्नातकोत्तर स्तर-समान होना चाहिए, क्योकि उस समय तक अहिंदी भाषी विद्यार्थी को ` भी.हिन्दी माषा पूरी तरह आ जाती ই। | साहित्य हमेशा से सम्बद्ध वस्तु है, इसलिए उसका सम्यक्‌ ज्ञान भी आवश्यक है । डॉ० वीरेन्द्र श्रीवास्तव ने बताया कि जिस क्षेत्र से मैं आ रहा हूँ, वहाँ से कुछ समस्याएं .. उठायी जा रही हैं। मैथिली क्षेत्र वाले मैथिली को एक अंलग भाषा मानते हैं, जिससे कई समस्याएँ उठ जाती हैं। सम्पूर्ण भारत में हम हिन्दी को व्यापक कर रह है अतः इसका स्तर सवेमान्य होना चाहिए। किन्तु सभी जनपदीय क्षेत्रों में कुछ समस्याएँ आ रही हैं। ज्यों-ज्यों अन्य भार- तीय भाषाएँ विकसित हो रही हैं, त्यों-त्यों हमारी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। मैथिली के विकास पा के साथ विद्यापति हिन्दी के कवि नहीं रह्‌ जायंगे । ऊँचे स्तर पर विश्वविद्यालयों को विभिन्नता के लिए क्‍या छूट देनी चाहिए ? इसमें मैं




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