आचार्य कुन्दकुन्द और उनके पांच परमागम | Acharya Kundkund Our Unke Punch Parmagam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्राचार्य कुन्दकुन्द ] [ १७ ज्ञान प्रवोध में प्राप्त कथा का संक्षिप्त सार इसप्रकार है :- “मालवदेश वारापुर नगर में राजा कुमुदचन्द्र राज्य केरता था । उसकी रानी का नाम क्ुमुदचन्द्रिका था | उसके राज्य में कुन्दश्नेष्ठी नामक एक वरिक रहता था| उसकी पत्नी का नाम कुन्दलता था । उनके एक कुन्दकुन्द नामक पुत्र भी था। वालकों के साथ खेलते हुए उस बालक ने एक दिन उद्यान में बेठ हुए जिनचन्द्र नामक मुनिराज के दर्शन किए और उनके उपदेश को अनेक नर-तारियों के साथ बड़े ही ध्यान से सुना । ग्यारह वर्ष का बालक कुन्दकुन्द उनके उपदेश से इतना प्रभावित हुआ कि वह उनसे दीक्षित हो गया । प्रतिभाशाली शिष्य क्ुन्दकुन्द को जिनचनद्राचायं ने ३२ वषं की अवस्था में ही चायं पद प्रदान कर दिया। बहुत गहराई से चिन्तन करने पर भी कोई ज्ञेय आचार्य कुन्दकुन्द को स्पष्ट नहीं हो रहा था। उसी के चिन्तन मे मगन कुन्दकुल्द ने विदेक्षेत्र मे विद्यमान तीर्थकर सीमेघर भगवान को नमस्कार क्रिया । वहाँ सीमंघर भगवान के मुख से सहज ही 'सद्धमंवृद्धिरस्तु प्रस्फुटित हुआ । समवसरण में उपस्थित श्रोताओं को बहुत आश्चर्य हुआ । नमस्कार करनेवाले के विना किसको आशीर्वाद दिया जा रहा है ? ~ यह प्रश्न सवके हृदय मे सहज ही उपस्थित हो गया था । भगवान की वाणी में समाधान श्राया कि भरतक्षेत्र के आचार्य कुन्द- कुन्द को यह भ्राशीर्वाद दिया गया हे । वहाँ कुन्दकुन्द के पूर्व॑भव के दो मित्र चारणऋडद्धिधारी मुनिराज उपस्थित थे । वे आचाय कुन्दकुन्द को वहाँ ले गये । मागं में कुन्दकुन्द की मयूरपिच्छिका गिर गई, तब उन्होंने गृद्धपिच्छिका से काम चलाया । वे वहाँ सात दिन रहे । भगवान के दर्शन और दिव्यध्वनि-श्रवण से उनकी समस्त शंकाझों का समाधान हो गया । कहते हैं, वापिस आते समय वे कोई ग्रन्थ भी लाये थे, पर वह मार्ग में ही गिर गया । तीर्थों की यात्रा करते हुए वे भरतक्षेत्र में भरा गये । उनका घर्मोपदेश सुनकर सात सौ स्थ्री-पुरुषों ने दीक्षा লী।




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