महापुराणम् आदिपुराणम् भाग - 1 | Mahapranam Aadipuranam Bhag - 1

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Mahapranam Aadipuranam Bhag - 1  by पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महापुराणम्‌ [ द्वितीयो मागः] अथ षडुपिंशतितमं पवं श्रथ चक्रधरः पूजां चक्रस्य विधिवव्‌ व्यधात्‌ । सुतोत्पत्तिमपि भीमान्‌ श्रभ्यनन्वदन्‌क्रमात्‌ ॥। १ ना दरिद्रोज्जनः: कश्चिद्‌ विभोस्तस्मिन्‌ महोत्सव । दारिद्यमथिलाभे तु जातं विश्वाशितंभवे ॥२॥ चतुष्केषु“ च॒ रथ्यासु” पुरस्यान्तर्बहि:* पुरम्‌ । पुञ्जीकृतानि रत्नानि तवाथिभ्यों ददोौ नृपः ॥३॥ प्रभिचार क्रियेवासच्चक्रपूजास्य विद्विषाम्‌ । जगतः श्ान्तिकर्मेव जातकर्माप्यभूत्तदा ॥४॥ ततोऽस्य दिग्जयोद्योगसमये शरदापतत्‌” । जयलक्ष्मीरिवामृष्य प्रसन्ना विमलाम्बरा ।॥५।॥ श्रलका इव ॒संरेजुः श्रस्याः मधुकरव्रजाः । सप्तच्छदप्रसुनोत्थरजोभूषितःःविग्रहाः ॥६॥ प्रसन्नमभवत्तोयं सरसां सरितामपि । कवीनामिव सत्काव्यं जनताचित्तरञ्जनम्‌ ।॥७॥ सितच्छदावली. रेजे सम्पतन्तौ समन्ततः । स्थूलमुक्तावलो नद्धा कष्टिकेव शरच्छियः ॥८॥ अथानन्तर श्रीमान्‌ चक्रवर्ती भरत महाराजने विधिपूवेक चक्ररत्नकी पूजा की और फिर अनुक्रमसे पुत्र उत्पन्न होनेका आनन्द मनाया ॥१॥ राजा भरतके उस महोत्सव के समय संसार भरमें कोई दरिद्व नहीं रहा था किन्तु दरिद्रता इस बातकी हो गईं थी कि धन देने पर भी उसे कोई लेनेवाला नहीं मिलता था। भावार्थ-महाराज भरतके द्वारा दिये हुए दानसे याचक लोग इतने अधिक संतुष्ट हो गये कि उन्होंने हमेशाके लिये याचना करना छोड दिया ॥२॥ उस समय राजाने चौराहोंमें, गलियोंमें, नगरक भीतर और बाहर सभी जगह रत्नोंके ढेर किये थे और वे सब याचकोंके लिये दे दिये थे ॥३॥ उस समय भरतने जो चक्ररत्नकी पूजा की थी वह उसके शत्रुओंके लिये अभिचार क्रिया अर्थात्‌ हिसाकायेके समान मालूम हुईं थी और पृत्र-जन्मका जो उत्सव किया था वह संसारको शान्ति कर्मके समान जान पडा था ॥४॥ तदनन्तर भरतने दिग्विजयके लिये उद्योग किया, उसी समय शरदऋतु भी आ गईं जो कि भरतकी जयलक्ष्मीके समान प्रसन्न तथा निर्मल अम्बर (आकाश) को धारण करनेवाखी थी ॥५॥ उस समय सप्तपणं जातिकं फूलोसे उठी हुईं परागसे जिनके शरीर सुशोभित हो रहे ह एसे भूमरोके समूह इस शरद्‌ ऋतुकं अरुकों (कंपादा) के समान शोभाय- मान हो रहे थे ॥६॥ जिस प्रकार कवियोका उत्तम काव्य प्रसन्न अर्थात्‌ प्रसाद गुणसे सहित ओर जनसम्‌ हके चित्तको आनन्दित करनेवाला होता ह उसी प्रकार तालाबों और नदियोंका जल भी प्रसन्न अर्थात्‌ स्वच्छ ओर मनुष्यो चित्तको आनन्द देनेवाला बन गया था ॥७॥ चारों ओर उडती हुईं हंसोंकी पंक्तियां ऐसी सुशोभित हो रही थौ मानो शरद्‌ऋवुरूपौ लक्ष्मी किन * রি १ दरिद्रो नाभूत्‌। नो दरिद्री जनः ल० । न दरिद्री जनः द०, इ०, अ०, प०, स०। २ याचकजनप्राप्तौ । - है सकलतृप्तिजनके। ४ चतुष्पथकृतमण्डपेषु | ५ वीथिषु। ६ 'बहिः पयेयां च' इति समासः | ও मारणक्रिया | ८ आगता। € निर्मेलाकाशा निर्मलवसना च। १० शरल्लक्ष्यया:। ११ आच्छादित । १२ हंसपद्धक्तिः ।




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