चिंतन के विविध आय | Chintan Ke Vividh Aay

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Book Image : चिंतन के विविध आय - Chintan Ke Vividh Aay

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about देवेन्द्र मुनि शास्त्री - Devendra Muni Shastri

Add Infomation AboutDevendra Muni Shastri

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
भारतीय चिन्तन में मोक्ष और मोद्य-मार्ग ] ५ क्र জা আহ মীন পুন নী দল नहीं यनेक मानता है, यह जो अनेकता है वह संख्यात्मक हैं, गुणात्मद नहीं है | एकात्मदाद के विरद्ध उसने व না है कि यदि पुरु्प एक ही है तो एवं पुरुष के मरण के साथ सभी का मरुण है | इसी प्रकार एक के वन्ध और मोक्ष के साथ सभी का वत्ध और मोक्ष होना चाहिए ! इसलिए पुरूप एक नहीं, अनेक हैं । स्याय-वभेयिकों के समान परे चनना র্‌ गे भात्मा का जागन्तुक धर्म नहीं मानते । चेतना पुथय का सार है। पूर्म चरम शाता है । स्वरूप की हृष्टि से पुरुष, वेष्णद-वेदान्तियों की आत्मा, जैनियों के जीव और शा~ वनित्म के चिद्‌ अणु के सदृश है । सांख्य दृष्टि मे वन्धनं वा कारण वविद्याया अज्ञान है | क्षात्मा के वास्तथिदः स्वरूप को न जानना ही अज्ञान है | पुरुष अपने स्वरुप को विम्मृत्त होकर উন কী प्रकृति या उसकी विक्ृति समझने लगता है, यही सबसे बड़ा अज्ञान है जव पुष्प और प्रकृति के बीच विवेक जा;त होता है--/मैं पुरुष हूँ, प्रकृति नहीं, अज्ञान नष्ट हो जाता है और वह मुक्त हो जाता है । कपिल मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध में विशेष चर्चा नहीं करते । थे तथागत बुद्ध के समान सांसारिक दुःखों की उत्पत्ति और उसके निवारण का उपाय बतलाते हैं किन्तु कपिल के पश्चात्‌ उनके शिष्यों ने मोक्ष में स्वरूप के सम्बन्ध में चिन्तन किया ` है) बन्धन का मुल कारण यह्‌ दै--पुरुप स्वयं के स्वरूप को विस्मृत हौ गया | प्रकृति या उसके विकारो के साथ उसने तादात्म्य स्वापितं कर विया है, यही वन्धन है । तेव उसका ९१ जव सस्यग््रान से उसका वह दोपपूर्ण तादात्म्य का भ्रम नष्ट हो जाता है तब पुरुष प्रकृति के पंजे से मुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है, यही मोक्ष है। सांख्यदर्शन में मोक्ष की स्थिति को कैवल्य भी कहा है। सांख्य दृष्टि से पुरुष नित्य मुक्त है। विवेक ज्ञान के उदय होने से पहले भी वह्‌ मुक्त था, विवेक ज्ञान का उदय होने पर उसे यह अनुभव होता है कि वह तो कभी भी बन्धन में नहीं पड़ा था, बह तो हमेशा मुक्त ही था, पर उसे प्रस्तुत तथ्य का परिज्ञान न होने से वह अपने स्वरूप को भूलकर स्वयं को प्रकृति था उसका विहार समझ रहा था! कंवल्य और कुछ भी नहीं उसके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान है । सांख्य-योगसम्मत मुक्ति-स्वरूप में एवं न्‍्याय-वेशेषिकसम्मत मुक्ति-स्वरूप में यह्‌ अन्तर है कि न्याय-वंशेपिक के अनुसार मुक्ति दशा मे आत्मा पना द्रव्यरूप होने पर भी वह चेतनामय नहीं है | मुक्ति दशा में चैतन्य के स्फुरणा था अभिव्यक्ति जैसे व्यवहार को अवकाश नहीं है । मुक्ति में बुद्धि, सुख आदि का आत्यन्तिक उच्छेद होकर भात्मा केवल कटस्थ नित्य द्रव्यरूप से अस्तित्व धारण करता है। सांख्य-योग की दृष्टि से ज्मा सर्वथा निर्गुण है, स्वतः प्रकाशमान चेतना रूप है और सहज भाव से अस्तित्व धारण करने वाला है 1 न्याय-वैशेषिक के अनुसार मुक्ति दशा में चैतन्य और ज्ञान का




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now