पउमचरिउ भाग 4 | Pauma Cariu Bhag - 4

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Pauma Cariu Bhag - 4 by एच० सी० भायाणी-H. C. Bhayaniदेवेन्द्रकुमार जैन - Devendra Kumar Jain

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

एच० सी० भायाणी-H. C. Bhayani

No Information available about एच० सी० भायाणी-H. C. Bhayani

Add Infomation AboutH. C. Bhayani

देवेन्द्रकुमार जैन - Devendra Kumar Jain

No Information available about देवेन्द्रकुमार जैन - Devendra Kumar Jain

Add Infomation AboutDevendra Kumar Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
सत्तवष्णासमो संधि ५ [२] विभीषण, जो परस्त्री और परधनक्ा अपहरण नहीं रवा, मनम यद्‌ सोचकर, दञ्याननराज फे सामने इस प्रकार मुड़ा मानो दोषसमृहके सामने गुणसमूह मुड़ा हो ! उसने कहा; है घरतीके आभूषण ओर योद्धाओंके संहारक रावण, तुम दुष्टोंमें दुष्ट हो, ओर सब्जनोंमें सज्जन। रावण, तुम मेरे कथनपर ध्यान क्‍यों नहीं देते, आनन्द करते हुए अपने स्वलसोको क्‍यों नहीं देखते ! घरसहित अपने नगरकी कया तुम्हें अब इच्छा नहीं है ) क्या তুম चाहते हो कि तुम्हारे उपर वज्र भाकर गिरे १ क्यों तुम अपनी सेनाकी बलि, चारों दिशाओंमें विखेरणा चाहते हो १ ईष्योकी आग तुम अपने हुदयमें क्‍यों रखना चाहते हो ) रामरूपी सिंहकों तुम क्यों छेते ह † विपकी वेल, जान-वृञ्च कर तुम क्यों रखना चाहते हो ? पहाड़के समान अपने सहान्‌ बड़प्पनको खण्ड-खण्ड क्यों करना चाहते हो | अपने चरित्र, शीछ और ब्रतको क्यों छोड़ना चाहते हो ? अपने विगड़ते हुए कामकों क्‍यों नहीं बना लेते; तीसरे नरककी आयु क्‍यों बाँध रहे हो? एक तो इसमें अपकीर्ति है, दूसरे अनेक अमंगछू भो हैं! इस लिए तुम्हारे लिए एक ही लाभदायक बात है, और बह यह कि तुम जानकी- को अभी भी वापस कर दो !” यह सुनकर दशानसने कहा, ण्ह माई, सुन में जानता हूँ, देख रहा हूँ, और मुझे नरककी अका मी है। फिर भी शरोरसें बससे वाली पाँच इन्द्रियोंको जीत सक्रना मेरे छिए सम्भव नहीं? ॥१०११॥ [३1] जो जनेकिं मन ओर ने््रोके किए अस्यन्त प्रिय था, शत्रु राजाओंके छिए इन्द्रके समान था, जो दुद्धर भूधरों ( राजा और पहाड़ ) को उठा सकता था, सैन्यघटामें धकापेछ सचा सकता था, दुजन छोगोंके मनको दहला देता, बड़े-बड़े




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now