पउमचरीउ भाग - 1 | Paumachariu Bhag - 1

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Paumachariu Bhag - 1   by एच॰ सी॰ भायाणी - H. C. Bhayani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धधडमचरिंड” और 'रामचरितमानस' श्ष श्रथा थी । सबसे बड़ी वात यह थी कि उस समय चीजोमें मिलावट होती थी । तुल्सीसे सात-आठ सौ साल पहले, स्वयम्भूनें लिखा था कि कलियुग धर्म क्षण हो जाता है, इससे स्पष्ट हैं कि कलियुगकी घारणा संसारके प्रति भारतवासियोक्रे निराशावादी दृष्टिकोणका परिणाम है, उप्तका विदेशी आक्रान्ताओसे कोई सम्बन्ध नहीं । जहाँ तक 'मानस'में समकालीन 'सास्क्ृतिकर चित्र” के अंकतका प्रदत है, वह स्पष्ट रूपसे उभरकर नही आता । परन्तु ध्यानसे देखनेपर लगता है कि समचा रामचरितमानस युगके यथार्थकी ही प्रतिक्रिया हैं। उनके अनुमार वेद विरोधी हो निशाचर नहीं है, परन्तु जो दूसरेके धन और स्त्रीपर डाका डालते है, जुआड़ी है, माँ वापकी सेवा नही करते, वें भी निशाचर है । इस परिभाषाके अनुसार नैतिक आचरणसे अ्रष्ट प्रत्येक व्यक्षित निश्याचर है। तुलसीके समय आध्यात्मिक गोपणकी प्रवृत्ति सबसे अधिक प्रवल थी । कवि कहता है कि लोग अध्यात्मवाद और अद्वैतवादकी चर्चा करते है, परन्तु दो कौड़ीपर वृसरोकी जान लेनेपर उतारू हो जाते है । तपस्त्री पैसेवाले है, और गृहस्थ दरिद्रि है । इसका अर्थ यह नही है कि तुलसीदास समाजवादी और प्रगतिक्षील़ थे। वस्तुतः समाजमे नैतिक क्रान्ति चाहते थे, रामके चरितका गान उनके इसी उद्देहयक्री पृत्तिका साहित्यिक प्रयास था । इसमें सन्‍्देह नही कि दोनो कवि अपने युगके नैतिक पतनसे बत्यन्त दृ खी थे। परन्तु एक जिनभवित द्वारा समाज और व्यक्तिमें नैतिक क्रान्ति लाना चाहता है जबकि दूसरा, रामभव्षित द्वारा दोनो कवि रामकथाके मूलस्वरूपकों स्वीकार करके चलते है? कथाके गठनमे चरित्र-त्रित्र० और नैतिक मूल्योक्ों महत्त्व दोनोने दिया है। स्वयम्भू सीताके निर्ब्रेसनका उल्लेख तो करते हूँ, परन्तु सीताके रत्राभिशनकों आँच नहीं आने देते। मानस की सीताके निर्वासनका जे स्वयं तुल्मीदास पी जाते है। कुछ मिलाकर दोनों कवियोका उद्देश्य एक आवारमूलक आस्तिक चेतनाकी प्रतिष्ठा करना रहा है । “देंवेन्द्रकुमार जैन




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