तिलोयपण्णत्ती भाग - 3 | Tiloyapannatti Bhag - 3
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
749
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जीवन में परिस्थितिजन्य प्नुकूलता-प्रतिकूुलता तो चलती ही रहती है परन्तु प्रतिकुल
परिस्थितियों में भी उनका अधिकाधिक सदुपयोग कर लेना विशिष्ट प्रतिभाश्रों की ही विशेषता है ।
'लिखोयपश्रासी' के प्रस्तुत संस्करण को झपने वर्तमान रूप में प्रस्तुत करने वाली विदृषी भ्रायिका
पूज्य १०५ श्री विशुद्धमती माताजी भी उन्ही प्रतिभाभों में से एक हैं। जून १६८१ में सीढ़ियों से
गिर जाने के कारण झ्रापको उदयपुर में ठहरना पड़ा श्रौर तभी ति० प० की टीका का काम प्रारम्भ
हुआ । काम सहज नहीं था परन्तु बुद्धि प्रौर श्रम मिलकर वया नहीं कर सकते | साधन भर सहयोग
सकेत मिलते ही जुटने लगे। प्रनेक हस्तलिखित प्रतियाँ तथा उनकी फोटोस्टेट कॉपियाँ मंगवाने
की व्यवस्था की गई । कन्नड़ की प्राचीन प्रतियों को भी पाठभेद व लिप्यन्तरण के माध्यम से प्राप्त
किया गया । 'सेठी ट्रस्ट, गुवाहाटी से श्राथिक सहयोग प्राप्त हुआ और महःसभा ने इसके प्रकाशन का
उत्तरदायित्व वहन किया। डॉ० चेतनप्रकाश जी पाटनी ने सम्पादन का गुरुतर भार संभाला और
ग्नेक रूपों में उनका सक्रिय सहयोग प्राप्त हुआ। यह सब पूज्य माताजी के पुरुषार्थ का ही
मुपरिणाम है । एृज्य माताजी यथा नाम तथा गुण के प्ननुसार विशुद्ध मति को धारण करने वाली
हैं तभी तो गणित के इस जटिल ग्रंथ का प्रस्तुत सरल रूप हमें प्राप्त हो सका है।
पाँवों में चोट लगने के बाद से पूज्य माताजी प्राय: स्वस्थ नहीं रहती तथापि श्रभीधक्ष्ण-
ज्ञानोपयोग प्रवृत्ति से कभी विरत नहीं होती । सतत परिश्रम करते रहना आ्रापकी ग्ननुपम विशेषता
है। झ्राज से १५ वर्ष पूर्व मैं माताजी के सम्पर्क मे ग्राया था और यह मेरा सौभाग्य है कि तबसे
मुभे पूज्य माताजो का श्रनवरत स'न्निध्य प्राप्त रहादटै। माताजी की श्रमशीलता का श्रनुमान मुक
जसा कोई उनके निकट रहने वाला व्यक्ति ही कर सक्ताहै। श्राज उपलब्ध सभी साधनों के
वावजृद माताजी सम्पूणं लेखनकाये स्वय श्रपनेहाथसे हौ करतीदहै-न कभी एक श्रक्षर टाइप
करवाती हैं प्रौर न विसी से लिखवाती है। सम्पूणं सशोधन-परिष्कारोकोभी फिरहाथसेही
लिखकर मयुक्त करती हैं। मैं प्रायः सोचा करता हूं कि धन्य हैं ये, जो (भआ्राहार मे) इतना ग्रल्प
लेकर भी क्रितना अधिक दे रही है। इनकी यह देन चिरकाल तक समाज को समुपलब्ध रहेगी ।
मैं एक अ्रल्पज्ञ श्रावक हूँ । अधिक पटा-लिखा मी नही हूं किन्तु पूरवे पुण्योदयसेजो मु यह
पवित्र समागम प्राप्त हुआ है. इसे मैं साक्षात् सरस्वती का ही समागम समभता हूँ । जिन ग्रन्धों के
नाम भी मैंने कभी नहीं सुने थे उनको सेवा का सुझ्रवसर मुझे पूज्य माताजी के माध्यम से प्राप्त हो
रहा है, यह मेरे महान् पुण्य का फल तो है ही किन्तु इसमें ग्रापका श्रनुग्रहपृर्ण वात्सल्य भी कम नही ।
जमे काष्ठ में लगी लोहे की कील स्वयं भी तर जाती है और दूसरों को भी तरने मे सहायक
होती है, उसी प्रकार सतत जञानाराधना में सलग्न पूज्य माताजी भी मेरी दृष्टि मे तरण-तारणा है।
ग्रापके सान्निध्य से मै भी ज्ञानावरणीय कम के क्षय का सामथ्य प्राप्त करूं, यही भावना है।
मै पूज्य माताजी के स्वस्थ एवं दी्धनीवन की कामना करता हूँ।
विनीत :
ज्र» कजो डोमल कामदार, संघस्य
ज शल क क 39 पअ ०८५५५५५ ८१००८८५ ५ ऋछ
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