राजाधिराज | Rajadhiraj

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : राजाधिराज  - Rajadhiraj

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी - Kanaiyalal Maneklal Munshi

Add Infomation AboutKanaiyalal Maneklal Munshi

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
न न्दोसन्त | वध चनाम सदन 1१5६ पे घंघ सास था प्रभात था । भ्गुकर कामन्फान में लग चुका था. परतु शमी दुग के द्वार नदीं सुने थे । दुर्य में प्रयेशा करने को लोग प्राचीन गाव घोर दुर्ग के चीय को स्यई फो पार फरफे टाल पर चढ़कर परकोंटे का ट्वार को पार रा २ दो थे एक लाट फे प्राचीन राजायों पाला पुराना ्रीर दूसरा न्रिमुवनपाल सोलंकी का यसाया था नया नगर 1 इस नई चरती के चारों बोर एक प्यत्यन्त नया प्राीर बनवाया गया था । इस प्राचीर के घोर प्राचीन नगर फे बीच एक रा चांदी सा सरिता-पथ के समान स्पानापिक टंग से बनी हुई थी जो नए नगर को प्राय चारों योर से घरे हुए थी ध्रालकन्न चादर की घोर जद खाई गहरी ह वहीं इस साई का सुख था। उसी के सामने चदी-घढ़ीं नॉकाएँ लंगर ठालती थीं शोर चद्दी से याद गाँध में प्रचेश करते थे 1 यहां एक टीले पर तोन-चार जन साधु खड़े हुए थे । जान पत्ता था वे दूर से चलते चले श्रा रदे हूं । उनमें से एक साधु सबसे दूर चाले टीले फे कगार पर खड़ा था । चद लगभग बीस-पच्चीस चर्प का था । उसके सुख का रूप ाखों का तेज चमकते हुए भाल को गारव ्रसाघारण था । देखने चाज़ा इस चर में पढ़ जाता था कि ऐसी कच्ची उमर में इस सुन्दर पुरुप ने श्र्खंड चेराग्य का कठिन जीवन कयॉकर स्वीकार किया होगा उसकी विशाल माँखें जितनी तेजोमपय्र थीं उत्तनी दी गददन भी थीं । उसने थोद़ी देर तक ऊँचे दुर्ग के कंगूरों




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now