चोबे का चिट्ठा | Chobe Ka Chitta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न भर नि रन चोबेजीका परिचय । छोग चिदानन्दको पागल कहते थे। उसकी चित्तबृत्ति कुछ विछ- क्षण प्रकारकी थी । उसकी बातचीत कामकाज रददन-सहन आदि सभी बातें अनोखी थीं। यह बात नहीं कि वह कुछ लिखा पढ़ा नहीं था । उसे कुछ अँंगरेजी और कुछ संस्कृत आती थी। किन्तु जिस विद्यासे अथौपा- जन न हो वह विद्या किस कामकी ? उसे मैं विद्या ही नहीं कहता। चाहे... कोई केसा ही मूखे क्यों न हो भले ही उसे लिखने पढ़नेके नाम केवल अपने दस्तखत करना ही लाता हो किन्तु यदि उसकी साहब-सूबाओं तंक पहुँच हो और उसे झुठी-सच्ची बातें बनाकर अपना काम निकालना आता हो तो मेरी समझमें वह पण्डित है और चिदानन्द जैसा विद्वान्‌ जिसने बीसों पुस्तकें पढ़ डालीं हों बिठकुरु सूखे है।.. . गे चिदानन्दको एक बार नौकरी सिर गईं थी । एक साहब बहादुरने उसकी सैँगरेजी सुनकर अपने आफिसमें कर्क रख लिया था परन्तु चिदानन्द्से उसकी छुर्की न हुई । वह आफिसमें जाकर आफिसका काम नहीं करता था। आफि- सके रजिष्टरोंमं कविता लिखता था आफिसकी चिटहिंयोंसें शेक्सपियर नामक किसी लेखकके वचन ठ्ख रखता था आर बिल-बुकोंके . प्रष्टॉंपर चित्र चनाया करता था । एक बार साहबने उससे माहबारी पे-बिल वनानेके. लिए कहा। चिदानन्दने एक चित्र बनाकर तैयार कर दिया । उसका भाव यह था कि बहुतसे भिक्ुक साहबसे भिक्षा माँग रहें. हैं और साहब बहादुर उनके आगे दो-दो चार-चार पैसे फेंक रहे हैं चिन्रके नीचे लिखा था- चास्तविक पे-बिठ । साहवने इस अतिशय नूतन पे-बिल को देखकर चौंबेजीको उसी दिन अपने यहाँसे बिना कुछ कहे-सुने विदां कर दिया की बस चिदानन्दकी चाकरीका अन्त हो गया । इसके बाद उसने और कोई नौकरी नहीं की । जरूरत भी नहीं थी । शादीके फन्देसें तो वह कभी पफँँसा शी नहीं । जहाँ वह रहता वहाँ यदि भरपेट और लोटा मर भंग मिल गई तो फिर उसे और किसी चीजकी दुरकार न थी । उसके रहनेका न था जहाँ-तहाँ पढ़ा रहता था। कुछ दिन चह सेरे घरपर भी




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