तारों के सपने | Taaron Ke Sapane

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तारों के सपने & « “कोई भी पौरुष न दिखा सकनेवाले दुबंल प्रारिययो का ऐसा ही गीत होता है ।--भश्गो बोली । अगर किसा औ.र दिन की बात होती तो भन्‍नन जी का सतुलत खो जाता । रात-प्रतिगत यह भी सम्भवथा, वे मुँह का न निग्ला हुभा ग्रास भी थाली में थुंककर चल देते, पत्नी पर अपने क्रोध की चरमं डिग्री दिखाने के लिए। लेकिन आज बम्बई जाने का सुनहरा सपना उनकी आँखो में चक्कर काठ रहा था । बडी नम्रता से उन्होने पत्नी के उस व्यग्य को फूलू-माला की भाँति धारण कर लिया और बडी शाति के साथ बोले--“केज्ने भग्गो, तुम तो बिना तोले ही मूँँह से शब्दों का अ्पव्यय कर देती हो । कितने परिश्रम से मैं लिखता हूँ, यह नही देखती हो ?” “तुम से तो दफ्तरो के लेखक अच्छे है, पहली तारीख को बँधी हुई तनखा ले आते हैं |” “भग्गो, तुम दफ्तर के लेखकों और मेरे लेख मे कोई अतर ही नही देखती हो, ताज्जुब है। उनका लेख फाइलो मे नत्थी होकर पुराना हो जाने पर जला दिया जाता है और साहित्यिक का लेख काल की कालिया के ऊपर चमकता है ।” « “मै यह कुछ नही समझती । मै तो रुपए को देखती हूँ और जो लेख रुपए दिखा सकता है, वही क्यो न बढ़िया है ?” “ओह ! अगर तुम पढी-लिखी होती तो ऐसे कदापि नही बोलती।” “पढी-लिखी जो है वो क्या शब्दों से ही श्रपना पेट भर लेती है * रसोई के लिए जो सामान चाहिए, वह कया बिना रुपए के ही प्राप्त हो जाता है ? बखत पर तुम्हे चाय भ्रौर पुन-तमाख्‌ नही मिले तो कंसा करदेतेहोतुम ?वेक्यापैसेकेही सेलनहीहे ? “हाँ भग्गों, बिना चाय, पान-तमाख के मेरे दिमाग में विचार की लहरे ही नही पेदा होती---मै उसे श्रपनी एक कमजोरी मानता हूँ । “कमजोरी की पूजा क्यो करते हो फिर ? प्राचीन काल में भी तो




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