सम्मलेन पत्रिका | Sammelan Patrika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
82
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कबीर साहब का रहस्यवाद १५
अपितु अपने लिए सभी प्रकार के सांसारिक अनिष्ट भी शुभकर बन जाते हैं। वे कहते हे ब्रह्मज्ञान
के होते ही मेरे भीतर शीतलता आ गई और जिस अग्नि की ज्वाला में संसार जला करता है वह
मेरे लिए जल के समान हो गई ।””' “जिस समय प्रेमानन्द के कारण वह हार खुल गया और
उस दयाल के दर्शन हो गए तो ममतादि के बन्धन आपसे आप टूट गए और जो जो वस्तुएं मेरे छिए
शूल सी लगा करती थी वे सभी मेरे सोने के लिए बय्या सी बन गईं।”' “अब मुभे गोविन्द का
अनुभव होते ही सतर कशल क्षम प्रतीत होने लगा । शरीर के भीतर जितनी भी उपाधियां हुआ
करती थीं वे सभी परिवर्तित होकर सहज समाधि का सुख देने लगीं, यमराज स्वयं राम कै रूप में
परिणत हो गया, बरी लोग मित्रवत् जान पडने छगे, दुर्जन सज्जन से दीख पड़े, तीनों प्रकार के ताप
दूर हो गए और जीवनमुक्त की स्थिति आ गई जिसमें न तो मुझ्के किसी प्रकार का भय लगा करता
और न में किसी को भयभीत हो करूँ। था ।/* “जब अपने और पराये का वास्तविक रहस्य
जान गया तो अब डरने की बात कह रह गई। अब तो भय वस्तुतः भय में ही प्रवेश कर गया और
बह शक्तिहीन बन गया । अपने और पराये की मनोवृत्ति ने मुभसे अनेक जन्म ग्रहण कराकर
मुभे दु.ख में डाल रखा था। अब में किसी को ऊँचा नीचा समभरने के भ्रम में भी नही पइता |
मेने अपनी अहता खो दी और मेरे लिए राम के सिवा और कुछ भी नहीं रह गया ।”* यह
स्थिति इस प्रकार पूर्ण नि की भी स्थिति हैं ।
कबीर साहब ने इस दशा का वर्णन दस प्रकार भी किया है, “आत्मतत्त्व की अनुभूति को
प्राप्त कर लेने पर में सबके साथ निर्वेर का भाव रखन छगा और काम क्रोधादि से रहित बन गया।
अब मेरे सामने न तो किसी 'राणा' एवं राव” की भावना थी और न ैद्य' एवं 'रोगी' का अंतर ही
महत्वपूर्ण रह गया था । मे अव यह समभने लम गया कि संसार के सभी पदार्थों में आत्मा ओत-
प्रोत है और उनकी विभिन्न स्थितियों में भी वही अपना खेल खेला करता है। उसने नाना प्रकार के
'घड़े' और भाडे' बना डाले हे, कितु उन सभी के रूपों मे अपना निजी स्वरूप व्यक्त करता हुआ
लीला किया करता हं ।' \ कबीर साहब, इसी कारण, सभी पदार्थो मे समान भावे रखने का सुझाव
देते हैं और इसके विपरीत भाव रखनेवाले को समभाया भी करते है । एक स्थान पर वे कहते हे,
“अरी मालिन, तू किसकी सेवा करने के लिए उद्यत है ? वह् जगदेव (परमात्मा) तो सब कहीं
जीता जागता और प्रत्यक्ष है । जिस मूर्ति की पूजा करने के लिए तू पत्तियाँ तोड़ती हँ बहू एक निर्जीव
« कबीर प्रल्यावली' सा० ४ पृ० ६३ ।
« वही, सा० ४८ पृ० १६ 1
बही पद, १५ पृ० ९३ ।
» बही, पद ६६ पू० १०८-९ ।
« वही, पद १८६ पु० १५०-१ !
পরী ० या ७ ~<
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