रवीन्द्र - साहित्य भाग - 11 | Ravindra - Sahitya Bhag - 11

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Ravindra - Sahitya Bhag - 11 by धन्यकुमार जैन - Dhanyakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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केच--- देवयानी-- कच - देवयानी-- ची अभिशाप-अस्त विदा : कान्य भूलना न गर्वमें । सुधासे बढ सुवामय दुग्ध उसका है। होता दशेनसे पापक्षय । मातृ-रूपा शाम्ति-मूति पयस्विनी शुध्रकरान्ति 1 उसकी की सेवा मेंने त्याग छुवा तृष्णा श्रान्ति । गहन वचरमोर्मे शस्य - द्याम লীলধিন্রলী লীহ फिरता रद्दा हूँ सग उसके में घर धीर अनुदिन । निम्न तट - भूमिपर परिव्याप्त इरित मृदुल स्निग्ब तृणराशि अपर्याप्त चरती थी यथातृप्ति, फिर अलसा हुई चलती थी मन्द्‌-मन्द्‌ नव॒ छवि छाई हुईं, और किसी तरु तले छया देख सुखकर करतो रोमन्थ শীত जाती हरी दूबपर ? सक्ृतज्ञ बडी - घड़ी आँखें निज खोल बह स्नेहवश मेरी ओर देख लेती रद्द - रद्द, अपनी कृतज्ञतासे पूर्ण शान्त दृष्टि द्वारा वात्सल्यसे चाटती थी मानो मेरा तन सारा। स्मरण रहेगी वेह दृष्टि स्निम्ध अविचल चिकनी सुपुष्ट चुश्र श्रौ देह समुज्ज्वल । क्लऋल-चती रेणुमतीको न भृ जाना) भूल जाऊँगा मेँ उसे, भला यद कैसे साना कितने दी कुसुमित कुल - पुल्ल पार कर आनन्दित मधुर ग्येमे कल -गान भर वदती है यहाँ खेवा -पगी आसवधू सम क्षिप्रगत्ति युमन्रता प्रवास - रूगिनी सम। हाय चन्धु, यहाँके प्रवास-कालमें क्‍या, कहो, ऐसी भी तुम्दारोी कोई सदचरी रदो, अदौ,




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