पंचास्तिकायः | Pancasitkay

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Pancasitkay by रायचन्द्र जैन -raychandra jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पश्चास्िकायः । ३ त्रिभुवनमूध्वोधोमध्यलोकवर्ती समस्त एवं जीवलोकस्तस्मे निरव्याबाधविशुद्यात्मतत्वोपल- म्भोपायाभिषायिताद्धितं । परमाथरसिकजनमनोदारिलान्मधुरंम्‌ । निरस्समस्तशंकादि- ` इन्द्रशतवन्दितेम्यः | पुनरपि कथंमूतेभ्यः | तिह॒वणहिदमहुरविसदवकार्ण त्रिभुवनहित- मधुरविशदवाक्येभ्यः । पुनरपि किंविशिष्टेम्य: । अतातीद गुणाणं अन्तातीतगुणेभ्यः | पुनरपि । जिदभवाणं जितभत्रेभ्यः, इति क्रियाकारकसंबन्ध: | इन्द्र शतवन्दितेभ्यः त्रिभुषन- हितमधुरविशदवाक्येभ्यः अन्तातीतगुणेभ्यो नमो जिनेभ्यो जितमत्रेभ्य; | ५ पदयोर्विवक्षितः सुविनसमासान्तरयो 'रिति परिमाषासुत्रवटेन विवक्षितस्य संधिर्भवतीति वचनातप्राथमिकरिष्य- प्रतिसुखबोधार्थमत्र ग्रन्थे संवेनियमो नास्तीति सर्वत्र ज्ञातव्यं । एवं विरेपणचतुष्टययुक्तेभ्यो जनेभ्यो नमः इलनेन मंगखा्थमनन्तक्ञानादिगुणस्मरणरूपो मावनमस्कासेस्विति संमरह्वायं | अथेव कथ्यते इन्द्रशतैवन्दिता इन्द्रशतवन्दितास्तेम्य इत्यनेन प्रृजातिशयप्रतिपादना् । विमुक्तं भवति---त एवेन्द्रशतनमस्काराहा नान्‍ये । कस्मात्‌ । तेषां देवासुरादियुद्धदशनात्‌ | त्रिमुब- नाय शुद्धात्मरूपप्राप्युपायप्रतिपादकत् द्वितं, वीतरागनिरविकल्पसमाधिसंजातसहजाएूर्वपरमा नन्द- 9 ६. नन ~~~ ---~-------------------- न ˆ-- ˆ~------“ -~-------^---------~--“--~~-------- + ^^-^ + २४, ज्योतिषी देवोंके २, मनुष्योंका १, ओर तिर्यचोंका १, इस प्रकार सौ इन्द्र अनादिकालसे वतेते दे, सर्वज्ञ वीतराग देव भी अनादि काल्ये हैं, इस कारण १०० इन्द्रोंकर नित्य ही वंद्नीय दै, अथौन्‌ देवाधिदेव त्रेलोक्यनाथ हैं । फिर कैसे ই? [ जिश्वुवनंहितमधुरविशद्वाक्यथेभ्य! | तीन छोकके जीबॉके हितकरनेवाले मधुर ( मिष्ट-प्रिय ) और विशद्‌ कहिये निर्मल हैं वाक्य जिनके ऐसे हैं । अर्थात्‌ स्वगेटोक मध्यलोक अधोटोकवर्ती जो समस्त जीव हैं, तिनको अखंडित निर्मे७ आत्म- तन्त्वकी प्राप्निकेणिये अनेक प्रकारके उपाय वताते हे, इस कारण हितरूप है. तथा ঈ ही वचन मिष्ट, क्योकि जो परमार्थं रसिक जन हे, तिनके मनको हरते हैं, इस- कारण अतिशय मिष्ट ( प्रिय ) है, और वे ही वचन निर्मल हैं, क्योंकि जिन बचनोंमें संशय, विमोह, विश्रम, ये तीन दोष वा पूवोपर विरोधरूपी दोष नहीं छगते हैं; इसकारण निर्मेल हैं । ये ही ( जिनेन्द्र भगवानके अनेकान्तरूप ) वचन समस्त वस्तुओंके स्वरू- पको यथाथे दिखाते हैँ; इसकारण प्रमाणभूत हैं; और जो अनुभवी पुरुष हैं, ते ही इन बचनोंको अंगीकार करनेके पात्र है । फिर कैसे हैं जिन? [ अन्तातीतग्रुणेभ्यः ] अन्तरहित हैं गुण जिनके, अर्थात्‌ क्षेत्रकर तथा काछकर जिनकी मयीदा (अन्त) नहीं, एसे परम चैतन्य शक्तिरूप समस्त वस्तुओंको प्रकाश करनेवाले अनन्तज्ञान अनन्त दशेनादि गुणोंका अन्त ( पार ) नहीं है । फिर कैसे हैं जिन ? [ जितम- সপ १ जीवलोकाय ` त्रिभुवनाय. २ वीतरागनिविकत्पसमाधिसंजातसहजापूर्वपरमानन्दरूपपारमार्थिकर- सुखरसाखादसमरसीभावरसिकजनमनोहारित्वात्‌ मधुरम्‌ ३ “भवणालयचालीसा विंतरदेवाण होंति बत्तीसा ॥ कप्पामरचउवीसा चंदो सूरो णरो तिरिओ ॥ १॥”




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