अनेकान्त | Anekant

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जैनोलॉजी में शोध करने के लिए आदर्श रूप से समर्पित एक महान व्यक्ति पं. जुगलकिशोर जैन मुख्तार “युगवीर” का जन्म सरसावा, जिला सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। पंडित जुगल किशोर जैन मुख्तार जी के पिता का नाम श्री नाथूमल जैन “चौधरी” और माता का नाम श्रीमती भुई देवी जैन था। पं जुगल किशोर जैन मुख्तार जी की दादी का नाम रामीबाई जी जैन व दादा का नाम सुंदरलाल जी जैन था ।
इनकी दो पुत्रिया थी । जिनका नाम सन्मति जैन और विद्यावती जैन था।

पंडित जुगलकिशोर जैन “मुख्तार” जी जैन(अग्रवाल) परिवार में पैदा हुए थे। इनका जन्म मंगसीर शुक्ला 11, संवत 1934 (16 दिसम्बर 1877) में हुआ था।
इनको प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और फारस

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अनेकान्त-55/4 13 ऐसा मानता है कि मैं बन्धुवर्गं को मनाकर पश्चात्‌ तपस्या करूं तो उसके प्रचुर रूप से तपस्या नही हो पाती है! ओर यदि जैसे तैसे तपस्या हो भी जाती हे, परन्तु वह कुल का मद करता है तो वह तपोधनी नही बन पाता है। इसी की टीका में पं. हेमराज ने भी ऐसे ही भाव प्रकट किये हैं कि यहाँ पर ऐसा मत समञ्ञना कि विरक्त होवे तो कटुम्ब को राजी करके ही होवे। कटुम्ब यदि किसी तरह राजी ने होवे तब कूटुम्ब के भरोसे रहने से विरक्त कभी होय नही सकता। इस कारण कुटुम्ब से पृने का नियम नही है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सामान्यतः कुटुम्ब से विदा लेकर ही दीक्षा ग्रहण करना चाहिए। परन्तु यदि कुटुम्ब मेँ कोई मिथ्यादृष्टि दीक्षा ग्रहण करने से रोके ओर माने नही तो एेसी स्थिति में आत्मकल्याण के लिए दीक्षा ग्रहण कर लेना चाहिए। क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में कुटुम्ब से आज्ञा लेने का कोई नियम नही हे। दीक्षार्थी द्वारा सर्वप्रथम सिद्धों की अर्चना का विधान इसलिए किया गया है, कि अर्हन्त भी दीक्षा के समय सिद्धों को नमस्कार करते हैं। क्योंकि अर्हन्त भगवान्‌ में सिद्धों की अपेक्षा कम गुण हें। दीक्षान्वय की क्रियायें त्रत को धारण करने के सम्मुख व्यक्ति विशेष की प्रवृत्ति से सम्बन्ध रखने वाली क्रियाओं को दीक्षान्वय की क्रियायें कहा जाता है। इन क्रियाओं की संख्या महापुराण के अनुसार अवतार से लेकर परनिर्वृत्ति क्रिया तक 48 है। मिथ्यात्व से दूषित कोई भव्य समीचीन मार्ग को ग्रहण करने के सम्मुख हो किन्ही मुनिराज अथवा गृहस्थाचार्य कं पास जाकर यथार्थं देव-शास्त्र-गुरु व धर्म के सम्बन्ध में योग्य उपदेश प्राप्त करकं मिथ्या मार्ग से प्रेम हटाता है ओर समीचीन मार्ग में बुद्धि लगाता हे गुरु ही उस समय पिता है ओर तत्त्वज्ञान रूप संस्कार ही गर्भं हे। यहीं यह भव्य प्राणी अवतार धारण करता हे। इसी प्रकार आगे कौ क्रियाओं का विवेचन हुआ है। सभी क्रियाओं के लिए पृथक पृथक्‌ मन्त्रों का विधान है। अन्त मे परनिरवृत्ति क्रिया विमुक्त सिद्ध पद्‌ की प्राप्ति रूप है।




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