समाज गौरव | Samaj Gourav
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6.3 MB
कुल पष्ठ :
210
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
चिरंजीलाल जी बड्जाते - Chiranjilal Jee Badjate
No Information available about चिरंजीलाल जी बड्जाते - Chiranjilal Jee Badjate
जमनालाल जैन - Jamnalal Jain
No Information available about जमनालाल जैन - Jamnalal Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नर ) न्य्
'४७. जीवन श्रसंस्कृत है-श्रर्थात् एक बार टूट जाने के बाद फिर नहीं जुइता,
शत: एक सण प्रमाद न करो ।
४८, संसारी मनुष्य श्रपने प्रिय कुट्टम्बियों के लिए. बुरे-से-बुरे पाप-कर्म कर
डालता है, पर जब उनके दुष्फल मोगने का समय श्राता है, तब श्रकेला दी दुश्ख
भोगता है, कोई भी भाई-बन्धु उसका दुःख बैँटानेवाला--सद्दायता पहुँचानेवाला
नहीं होता । ह
४६. संसार मैं जो कुछ घन, जन श्रादि पदार्थ हैं, उन सबको पाशरूप जान-
कर मुमुन्लु बडी सावधानी के साथ फूँक-फूँककर पॉव रखे ।. जब तक शरीर सशक्त
, तब तक उसका उपयोग झधिक-से-श्रधघिक संयम-घर्म की साधना के लिए,
कर लेना चाहिए । बाद में जब वह बिलकुल ही श्रशक्त हो जाय, तब बिना
किसी मोह-ममता के मिट्टी के ठेले के समान उसका व्याग कर देना चाहिए |
५.०. श्रात्म-विवेक भटपट प्राप्त नहीं हो जाता-इसके लिए, तो भारी साधना
की श्रावश्यकता है । महर्षि जनों को बहुत पहले से ही संयम-पथ पर दृद्ता
के साथ खड़े होकर, काम-भोगों का परित्याग कर, समतापूर्वक संसार की
वास्तविकता को समभकर,; श्रपनी श्रात्मा की पापों से रक्षा करते हुए सर्वदा
श्रप्रमादी रूप से बिचरना चाहिए ।
५.१. जो मनुष्य संस्कारदीन हैं, तुच्छ हैं, निन्दा करनेवाले हैं, राग-द्ेष से
युक्त हैं, वे सब श्रधर्माचरणवाले हैं । इस प्रकार विचारपूर्वक दुर्गुंणों से घृणा करता
हुआ मुमु्ले शरीर-नाश पय॑न्त एकमाज सद्युणों की ही कामना करता रहे ।
५.२. जैसे श्रोस की बूँद कुशा की नोक पर थोडी देर तक ही ठह्टरी रहती है,
उसी तरह मनुष्यों का जीवन भी बहुत श्रल्प है-शीघर ही नाश हो जानेवाला है |
इसलिए, हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर ।
५३. श्रनेक प्रकार के विश्नों से युक्त श्रत्यन्त श्रव्प श्रायुवाले इस मानव-
जीवन मैं पूर्वसंचित कर्मों की धूल को पूरी तरह भटक दे । इसलिए, हे गौतम !
क्षणमात्र भी प्रमाद न कर |
५४ दीर्घकाल के बाद भी प्राणियों को मनुष्य-जन्म का मिलना बड़ा
दुलभ है, क्योंकि कृतक्मों के विपाक श्रत्यन्त प्रगाढ़ होते हैं। हे गौतम च्णमात्र
भी प्रमाद न कर |
User Reviews
No Reviews | Add Yours...