प्रसाद का साहित्य | Prasad Ka Sahitya

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Prasad Ka Sahitya by कृष्णदेव प्रसाद गौड़ - Krishndev Prasad Gaud

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रसाद जी नए --मेथिलीशरण गुप्त-- चालीस-बयाल्ीस वर्ष ६०, मे फाशी गया था | एक सम्भ्रान्त कुठम्बके अतिविके रुपमें यह मेरी पहली दूरकी यात्रा थी। दो, दूर की । इसके पूवर में अयने सम्यन्धियोंके यहाँ थराता जाता था। परन्तु उस आआने-जानेको सीमा दस बीस फोससे अधिकन होती थी। बचपनमे अयोध्या, फाज्ी, प्रयाग और चित्रकूटकी तीर्थ यात्राएं अपने गुदजनोके साथमे कर चुका था । परन्तु किसीके अतिथिक्रे रूपमें नहीं । राय कृष्णदासजी मेरे आतिथेय थे। उन्होंने बडे स्नेहसे मुझे अपने यहाँ ठहराया था। स्वर्गीय बाहस्पत्यजीसे मुझे कुछ काम था और उन दिनो वे फाशी में ही थे | उन्हीं दिनो स्वामी सत्यदेवजी अमेरिफासे शिक्षा प्राप्त फरके छीटे थे और देशम घूम घूमकर व्याख्यान दे रहे थे। इमी क्रममें फाशी आये घे। नागरी-प्रचारिणी-समामं उनऊझा भाषण था। भाई इृप्णदास मुझे भी वहाँ ले गये | स्वामी सत्यदेवजीके लेख 'हरस्वरती? में छपा करते थे भोर में उन्हें चाजसे पटा फ्रत्ता था। उनका भाषण भी वेमा ही प्रभावशादी था। प्रसादजी भी सभामें जाये थे और पहले पहल वहों मेने उनके दर्शन फिये | भाद्‌ झृप्णदाससे उनकी घनिष्टता थी। उन्होंने ही मुझे उनसे मिलाया। उनके व्यवद्यारमें बड़ी शिष्टता दिश्यायी दी। मैंने समझा, मेरी रचनाओं के फारण ही प्रसादनी इतने सम्मानपूर्वक मुझसे मिल रहे हैं। परन्तु बह मेरी भूछ थी । আই লক্ষ मुझे पता चला, थे मुझे फत्रि नहीं, प्मफार मात्र मानते हैं, भले हो पद्यकारक्े पहले प्रतिष्चित शब्द और जोड़ देते हो, इससे ऊधिफ नहीं | एक फ्विता-संग्रट में, जिसमें तथा-फथित छायावाटी कवियोफी रचनाएँ थीं, मेरी मी दो तीन रृतियोँ रख दी गयी थीं। ग्रह छत उन्हें टीफ नप चयी । द्र सोनम पट्‌ गये। मैंने उनसे फद्ा-मेरी रचनाएँ




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