प्रेम-पथिक | Prem - Pathik

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Prem - Pathik by श्री रामचन्द्र मिश्र - Sri Ramchandra Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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थैई प्रमपथिक | ६ हुभा। वष नैराश्य प्रेम-पथिकथे। श्सी कारण उन्हं मृत्यु की चाह थी । वचद्द सेना में होते हुए भी सैनिक न थे। उन मृत्यु की चाह थी इसी लिए चह सेना में सबसे अधिक आलसी ओर कमज़ोर थे। बह दिन-रात भाँग पोते ओर अपने घर में सोया फरते | कभी किसी मरहठ। टुकड़ी के साथ जाते उन्ह नहीं देखा गया । आज्ञा-भंग करना उनके लिए एक सामान्य बात थी। वह अपने साथियों से बात बात पर लड बठते ! जब कोई उन्हें अशिष्ट होने का दोष देता तो मरने मारन पर उतारू द्वो जाते । इसी लिए धीरे घीरे एक एक करके सब दुगंवासी उनसे विरोध करने लगे। परन्तु माधव किसी के विरोध को भी परचा नहीं करते थे । उनके जीवन का स्त्रोत दूसरे ही ओर बह रहा था ; उन्हें सेना में गोरब प्राप्त करने को कोई भी चाल ज्ञात न थी। वे इस संसार को होन द्वष्टि से देखने थे । अपनी मान-रक्षा का उन्हें तनिक भी ध्यान न था । उनका सिद्धान्त मृत्यु, उनको आकांक्षा मत्यः यदि ईश्चर से उनझी काई प्राथनाथी तो म॒त्यु ही थी । संलार उनके लिये अंधक्रागम्मय था । वह सोचा फरते-हा, में व्यथं अव तक्र इस क्षद्र जीवन को बनाये हुप हूँ। में कायर ह चा शान्नाके < रश पालन करने मे अच नक्‌ श्रसम्थ ह| हेश्वर न्यायो नहींदहै। मुभे मृत्यु कया नहीं देना एन जाने सरदार कान्हजी से मेरा किस जन्म छा वर थाज़ो उन्ञने मुभे कुएँ से निकालकर मेरे कतंव्यफालन में बाधा डाली | क्या यही ईश्वर का न्याय है ? फिर सोचते--अन्याय भी नहीं । मेंने वित द्रोह क्रिया था | अपने अधी न ठपक्तियों को কীনা ছা ভাগ सोप दिया । उसने मुभे शान्ता से, वंचित क्षिया । मेने इच्रकर अपने हृदय को शान्तिरम्भ कराना




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