प्रेम-पथिक | Prem - Pathik
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
215
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)थैई प्रमपथिक | ६
हुभा। वष नैराश्य प्रेम-पथिकथे। श्सी कारण उन्हं मृत्यु
की चाह थी । वचद्द सेना में होते हुए भी सैनिक न थे। उन
मृत्यु की चाह थी इसी लिए चह सेना में सबसे अधिक
आलसी ओर कमज़ोर थे। बह दिन-रात भाँग पोते ओर
अपने घर में सोया फरते | कभी किसी मरहठ। टुकड़ी के साथ
जाते उन्ह नहीं देखा गया । आज्ञा-भंग करना उनके लिए एक
सामान्य बात थी। वह अपने साथियों से बात बात पर लड
बठते ! जब कोई उन्हें अशिष्ट होने का दोष देता तो मरने
मारन पर उतारू द्वो जाते । इसी लिए धीरे घीरे एक एक करके
सब दुगंवासी उनसे विरोध करने लगे। परन्तु माधव किसी
के विरोध को भी परचा नहीं करते थे । उनके जीवन का
स्त्रोत दूसरे ही ओर बह रहा था ; उन्हें सेना में गोरब प्राप्त
करने को कोई भी चाल ज्ञात न थी। वे इस संसार को होन द्वष्टि
से देखने थे । अपनी मान-रक्षा का उन्हें तनिक भी ध्यान न
था । उनका सिद्धान्त मृत्यु, उनको आकांक्षा मत्यः
यदि ईश्चर से उनझी काई प्राथनाथी तो म॒त्यु ही थी । संलार
उनके लिये अंधक्रागम्मय था । वह सोचा फरते-हा, में
व्यथं अव तक्र इस क्षद्र जीवन को बनाये हुप हूँ। में कायर
ह चा शान्नाके < रश पालन करने मे अच नक् श्रसम्थ ह|
हेश्वर न्यायो नहींदहै। मुभे मृत्यु कया नहीं देना एन
जाने सरदार कान्हजी से मेरा किस जन्म छा वर थाज़ो
उन्ञने मुभे कुएँ से निकालकर मेरे कतंव्यफालन में बाधा
डाली | क्या यही ईश्वर का न्याय है ? फिर सोचते--अन्याय
भी नहीं । मेंने वित द्रोह क्रिया था | अपने अधी न ठपक्तियों को
কীনা ছা ভাগ सोप दिया । उसने मुभे शान्ता से, वंचित
क्षिया । मेने इच्रकर अपने हृदय को शान्तिरम्भ कराना
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