पंचस्तोत्रसंग्रह | Panchastotrasangrah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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-भक्तामरस्तोत्र । [ ७ ति ১ ৭৯ २ २५०७-६० ७७०४७ र, ष ৯৬২ ৭৯৬ ২৬৯৬২ ২৬১. ৯৬ ১৯৬ ৬৬৯৮১ ৯৬ , च ६४ ४४३७ ( पद्माकरेपु ) तालावोंमें ( जलजानि ) कमलढोंको ( विकाशभाज्ि ) विकसित (कुरुते ) करदेती द । भावार्थ-्रभो ! आपके निदौप स्तवनमे तो अनन्त शक्ति है ही, पर आपकी पवित्र चचमिं भी जीबोके पाप नष करनेकी सामथ्ये है। जैसे कि सूयेके दूर रहनेपर भी उसकी उज्बल किरणोंमें कमलोंको विकसित करनेकी सामथ्यै रहती दै ॥ ९॥ नायद्धुतं युवनभूपण ! भूतनाथ ! भूतगण भवन्तमभिष्टुवन्तः । तस्या भवन्ति भवतो ननु तेन कंवा भूसाभ्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥९०॥ अन्वयार्थ-( भुवनभूषण ! ) हे संसारके भूषण | (भूतनाथ ! ) हे प्राणियोंके स्थामी ! ( भूतैः ) से ( गुणेः) गुणोंके द्वारा ( भव- न्तम्‌ अभिष्टुवन्तः ) आपकी स्तुति करनेवाले पुरुष ( भुवि ) एथिवी पर ( भवतः ) आपके ८ तुल्याः ) चराबर ( भवन्ति ) होजाते हैं ( इदम्‌ ' अत्यदूमुतम्‌ न ) यह्‌ भारी आश्चयेकी बात नहीं दै (वा) अथवा ( तेन ) उस खामीसे ( किम) क्या प्रयोजन है १ (यः) जो ( इह ) इस छोकमें ( आश्रितम_) अपने आधीन पुरुपको ( भूत्या ) सम्पत्तिके दारा (आत्मसमम्‌ ) अपने बरावर (न करोति) नी करता । भावाग- हे स्वामिन्‌ जिसतरह उत्तम मालिक अपने नौकरको सम्पत्ति देकर अपने समान बना छेत्ा दे, उसी तरह आप भी अपने भक्तको अपने समान शुद्ध बना लेते हैं || १० ॥ दृष्ठा भवन्तमनिमेपाविलोकनीयं नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः । पीला पयः शशिकरषातिदुग्धासिन्धोः षार जरं जखनिधरसितं क इच्छेत ॥ १९ ॥




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