विवेक | Vivek

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जालि व्यवस्था पर आक्रमण (ह आचायं क्षितिमोहुन सेन जब वर्णाश्रम धर्म प्रवातित हुआ तो उसके साथ एक बहुत ऊंचा आदर्श भी लोक नेताओं के सामते जरूर रहा होगा | यहीं कारण है कि उन्होंने ब्राह्मण का स्थान जितना ऊँचा रखा उतना ही उसकी जवाबदेही भी अपरिसीम रख दी । यदि सभी लोग ब्राह्मण को पूज्य मानं तो तपस्वी ब्राह्मण की. सरल अनाडम्बर जीवन' के साथ मम्भीर ज्ञात उच्च आदर्श और कठोर तपस्था के समन्वय से समाज को थोड़े से ही व्यय से अग्रसर कर सके । निश्चय ही यह बहुत बड़ा आदर्श है । यही कारण है कि उन दिनों आदर्श रक्षा का अर्थ ही होता था ब्राह्मण-रक्षा | यही कारण है कि उन दिनो समाज की स्थिति के लिये ब्राह्मण-रक्षा की इतनी व्याकुलता प्राचीन ग्रन्थों में दिख जाती है । क्रिस्तु यद्धि आदर्श के साथ ब्राह्मण का नित्य योग न हो, तो ब्राह्मण-रक्षा का कोई अर्थ हो नही होता । फिर तो इतिहास के ही निकट अश्व करना पड़ेगा | दुर्भाग्यवश आदर्श के साथ योग बहुत दिनों तक टिका नहीं रह सका | जहाँ श्रद्धा और सम्मात सहज ही मिल जाता हो, भौर इसके लिये क्रिसी कठोर तपस्था की आवश्यकता न समझी जाती हो, वहाँ आदर्श से भ्रष्ट होने में कितनी देर लगती है ? ऐसी हालत में तपस्या और आदर्श धीरे-धीरे शक्तिहीव और निर्जीब हो जाते है । पात्विकता ओर राजसिकता के स्थान पर भी जड़ तामसिकता विराजमान होती है । इसी प्रकार धीरे-धीरे तपोभूमि, तीथों और मठों से व्याप्त हो गई। आचार्य और तपस्वीगण महुष्तों और पण्डो के रूप में प्रकट हुए ! जिन लोगों के ऊपर समाज के नेतृत्व का भार था वे लोग सरल और अनाइम्बर जीवन छोड कर बड़ी-बड़ी नौकरियों भौर अधन्य न्यदसायौमे जा फँसे । पैसा ही उनका ध्येय हो उठा । ऐसी अवस्था में वे अगर पुराने सस्मान का लोभ লতা तो काम कैसे चलेगा ? दोनों और की सुविधा क्या एक ही साथ भोगी जा सकती है। हंसब ठठाइ फुलाउब गालु एक साथ केसे होंगे ? क्या ही अच्छा हो थदिवे लोगं स्तेच्छासे कोई एक ही सुविधा चन लें--पराना सम्मान या नया आराम । दोनों का लोभ न करें त्तभी कल्याण है । शास्त्र जोर देकर कहते हैं कि ब्राह्मण का आदर्श उच्च और महान होता चाहिये তত आदर्श से भ्रष्ट होने पर जन्म से ब्राह्मण होते पर भी उसका ब्राह्मणत्व जाता रहता है। इसीलिये নন पुराण कहता है कि राजद्वार पर वेद बेचने वाला ब्राह्मण पतित है (प्रभास खण्ड, प्रभास क्षेत्र महात्म्य 207122-27), सदाचारहीन, सूदखोर और दुरविनीतिपरायण ब्राह्मण शूद्र हँ (वही 28-54) । सूदखोर तो अस्पृष्य होता है। आपत्ति काल में यदि कोई यूदखोरी से जीविका निर्वाह करे, तो स्‍्तान करने से महज उस समय के लिये पवित्र हो सकता है। यहाँ तक कि क्रियाकर्मान्वित होकर भी यदि ब्राह्मण बेद विद्या हीन हो, तो वह शुद्ध हो जाता है। (सौरपुराण 17186-39) । लेकित केवल वेद पढ़ना ही ब्राह्मणत्व के आदर्श के लिये पर्याप्त नहीं है ) वेद पढ़ कर भी विचारपूर्वक जो उसका तत्व न समझ सके बह ब्राह्मण शुद्र-कल्प अपात्र है (पद्मपुराण, स्वर्ग: 26|135) 1




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