हमारी नाट्य साधना | Hamari Natya Sadhana

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Hamari Natya Sadhana by राजेंद्र सिंह गौड़ - Rajendra Singh Gaud

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नाटक की मूल प्रवृत्तियाँ और उनका महत्त ६ उषे दमो यदी प्रतीत दोता दै कि दम वास्तविकता को देख रहे हैं | श्रभ्यंकाव्यमें द्रुमो श्रादिका वणन श्रद्वा दोता दैःद्श्य काव्य में अमिनय-दाण | इसीलिए दृश्य काव्प, श्रव्य काब्य की अपेक्षा आधिक और स्थायी प्रमाव उसनझ्न करने में सहायक होता है। भव्य काव्य में केवल भ्वरोन्द्रिय को आनन्द मिलता है, पर दृश्य काव्य में अवशेद्धिय के साथ-साथ चह्ुरिन्द्रिय को भी। चक्तुरिन्द्रिय का विषय रूप है, इसलिए दृश्य काव्य को रूपफ कहना सुक्तिसगत ही है। ऐसी दशा भे दश्य काव्ये रूपक का पर्याय दो जाता है, पर अब जो नाटक लिखे जा रहे हैं उनमें कविता के श्रमाव फे साथ-छाथ अमिव्यंजना भी काब्य- मय नहीं दोती | इसलिए श्राधुनिक नाटकों को काव्य के द्रन्त्गत रथान देगा उचित नहीं जान पड़ता 1 श्राघुनिक मारक युख्यतः गद्य देते ६ । इससे स्पष्ट है कि नाटक और काव्य, साहित्य के दो मिन्न-मित्र अंग है शरीर उनकी रूप-रेखा एवं उनकी श्रमिव्येजना-रीली नादक और कहीं भी एक-दूसरे से मेल नहीं खाती) पर इतनी सद्दाकाम्य. विभिन्नता देते हए मी यह तो मानना शे दोगा कि दोनों सानव-जीवन की न्याख्या करते हैं और दोनों का विकास श्रस्तदव न्द्व के चित्रण में होता है। कपानक की दृष्टि से नाटक की तुलना मद्दाझाव्य से हो सकती है| मद्गाकाब्य का कथानक नाठक के कथानऊ की श्रपेह्ा अधिक विस्तृत द्वोवा है । मदाकराब्य के कथानक के गर्भ में अनेक छोटी-छोटी प्रांगिक कथाश्ों का सम्रावेश रहता है; नाटकं के कपानक में एकमात्र उन्हीं महत्वपूर्ण घटनाओं तथा परिस्थि> तियों को अपनाना पड़वा है जिनके बिना कथा का विकास ही नहीं हो सकता | पेसी दशा में किसी महाकाब्य के कथानक को बिना का्टन्छाँट के, नाटक के कथानक के रूप में परिणत करना अत्यन्व कठिन दे | मद्दाकाज्य के विषयों की सीमा मो अपेक्षाकृत सीमित है। नाठक इति- हास, पुराण, लोकगाथा, समाज, राजनीति, नीति, मानव-दर्शन, वर्वमान-समस्याएँ--इनमें से किसी से भी श्रगनी रचना के लिए सामग्री




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