हिन्दुस्तानी त्रेमासिक | Hindustani Tramasik

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विद्या भास्कर - Vidya Bhaskar

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श्री बालकृष्ण राव - Balkrishna Rao

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ 1हुखुस्तानी बीच में ही है या प्रेम[ के छक्ष्य| तक पहुँच गया है।* किन्तु पुजना पहुँचने के अर्थ में नहीं प्रयुक्त होता। डॉ० अग्रवाल का अर्थ है: “क्या यह अभी बीच में (कच्चा) है या प्रेम में पूरा हो चुका है। मेरी समझ से इसका अर्थ होना चाहिए: दिख कि यह प्रेम से पुज गया है अर्थात्‌ आपूरित हो गया है या अभी [कुछ] बीच (अन्तर या रिक्‍्तता) है।” अन्दय इस प्रकार होगा : दहुँ यह पेभहि पूजा कि [क ] बीच ? [२३] २११-२ : परिमल पेम' न आ शषा} गुप्तजी--प्रेम का परिमल छिपा नहीं है! ।रत्तसेत के प्रेम की परीक्षा लेने के अनन्तर यह पार्वती का महादैव के সবি জঙ্গল ই। डॉ० अग्रवाल का यह अर्थ कि सुगन्धि और प्रेम छिपे नहीं रहते! अधिक युक्तियुवत लगता है। गृप्त जी ने कदाचित्‌ आछे एक बचन की किया के काश्ण एकवचन कर्ता का प्रयोग उचित समझा (और वह उचित है भी ); किन्तु परमावत' में क्रियाओं का इस प्रकार का प्रयोग अस्यत्र भी सिल जाता है; तुल० २५४-५ : सरग पंतार भरं नेहि न्नाग। [२४] २२०१५: भौ षुर्हि तहं बसर के गोटा । सरं मुगुति होहु सर रोठा। 'रोटा' का अर्थ उपर्युक्त दोनों विदानो ने रोद {वष रोटी) क्रिया दै--अर्थान्‌ বীর जैसे सपाट होता है वैसे ही तुम भी हो जाओगे। किन्तु यहू अर्थ प्रयोगसम्मत नहीं ज्ञात होता। यहाँ 'रोटा' वस्तुतः 'राबट' (छाजावर्त-कसौटी का काछा पत्थर) है। जल भुन कर कसौटी की तरह काला ह जाने के लिए अवधी में रौटाबरन' (रावट-+- वर्ण) प्रचलित है। হাতা रोड़ा (पत्थर या ईट के छोटे-छोटे टुकड़े) भी हो सकता है। यहाँ सिंहूलनरेश गन्धर्वसेन के दूत रत्नसेन और उसके साथियों को धमकाते हैं कि गढ़ से वज्च के गोले छूठेंगे तो सब भुगृति भूल जायगी और गोलों में भुनकर रौटावरन हो जाओगे अथवा रोड़ों को तरह चूर-चूर हो जाओगे। 'रोट या रोटी बन जाना' ऐसा कोई मुहाबरा प्रचलित नहीं है। [२५] २३४-३ : होहु पतंग 'अघर' गहु दिया। गुप्त जी--तूं पंतिगरा बन और स्वयं अधरों से दीपक को पकड़ (उस्त पर मस्म हो जा) अग्रवाल--पत ज्र बतो और अपने अधरों से दीपक चाठो। किन्तु यहाँ अधर ओष्ठ का वाचक नहीं ज्ञात होता प्त्युत दीपदानी का अधरासन जाते होता है। (तुल० सुर: कच्छप अध आसन अनूप अति डांडी सहुस' फती) । अतः विवेच्य पंक्ति का अर्थ करना चाहिए---परतिगा बनो और [मर कर] दिये के अधरासन [का आश्रय] भ्रहण करो। अर्थात्‌ प्रिय के चरणों में बलि हो जाओ।” पद्मावती का यही सन्देश रत्वसेस के लिए है। [२६] २२३५-२ : ष्टौ पिगला सुलमन नारी । सुश्षि समाधि लागि गौ तररी। ~ गुप्त नी--उम्ने पिज्ुुछा और सुक्म्भा नाडियों का जश्नय पकड़ा




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