रवीन्द्र - साहित्य भाग - 14 | Ravindra Sahitya Bhag - 14
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
152
श्रेणी :
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No Information available about धन्यकुमार जैन 'सुधेश '-Dhanyakumar Jain 'Sudhesh'
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)विसजेन : नाटक १७
देवता क्या सब-के-सब रसातलम चले गये १ सिफं दानव ओर मानव
मिलकर दर्षके साथ विख्का राज्य भोग रहे हैं १? देवता अगर नहीं रहे
तो न सही, ब्राह्मण तो हैं। ब्राह्मणके रोष-यज्ञमें राजदण्ड और सिंहांसन
हविकाष्ठ बनकर रहेगा ! (जयसिंहके पास जाकर स्नेहके साथ) वत्स, आज
तुम्हारे साथ मेंने रूख्ा आचरण किया है, चित्त मेरा अत्यन्त छुब्ध है आज ।
जयसिंह--क्या हुआ है प्रभु !
रघुपति-- क्या हुआ है १ पूछो अपमानिता त्रिपुरेश्वरीसे । इस मुहसे
केसे कहूँ कि क्या हुआ है ।
जयसिंह---किसने किया है अपमान १
रघुपति -गोविन्द्माणिक्यने ।
जयसिंह--गो विन्दमाणिक्यने / किसका अपमान किया है प्रमु १
रघुपति--किसका अपमान ! तुम्हारा, हमारा, सर्वेशासत्रका. सर्वदेशका,
सवकालका, सर्वेदेश-कालको अधिष्ठात्री महाकालीका, सबका किया है अपमान
तुच्छ सिंहासनपर बेठकर, माकी पूजा-वलि निषिद्ध कर दी है दम्भमें आकर !
जयसिंह-- गो विन्दमाणिक्यने |
रघुपति--हाँ, हाँ, उसीने, तुम्हारे राजा गोविन्द्माणिक्यने ! तुम्हारे
सवश्रेष्ठने, तुम्हारे प्राणोंके अधीख्वरने | अक्ृृतज्ञ | बचपनसे पालन किया है
मेंने तुझे, कितने स्नेहसे, कितने जतनसे,- आज मुमसे भी प्रिय हो गया
तेरे लिए गोविन्दमाणिक्य !
जयसिह --प्रभु, पिताकी गोदमें बेठा छुद्र मुग्ध बालक आकाशकी तरफ
हाथ बढ़ाता है पूर्णचन्द्र पानेको;-देव, तुम पिता हो मेरे, पूर्णचन्द्र हैं
महाराज गोविन्द्माणिक्य !- किन्तु यह कया बक रहा हूँ में। अभी-अभी
क्या सुना मेने ! माकी पूजाकी वलि रोक दी हे राजाने ! यह आदेश
कौन मानेगा !
रघुपति--जो नहीं मानेगा उसे निर्वासन-दंड दिया जायगा !
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