मितव्ययता | Mitavyayata

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ परिश्रम । चार्‌ न होने देता, उन पर दयाभाव रखना ओर उनको अपने समान -खावलम्वी बनाना | गणितन्ञ खीर धर्मज्ञ वक्ता वैरोका कथन है कि कोई सम्य पुरुष यह्‌ वात पसंढ न करेगा कि बह दूसरोकी कमाई प्र अपना जीवन ज्यतीत करे, या उस फीडेके समान रहना स्वीकार करे जो अनाजके कोठेमेंसे दाना चुराता रहता है। वह यही चाहेगा कि भै दूसरोके सदारेसे अपनेको अलग करके जनताकौ सेवा ओर परोपकारम अधिकतर योग दूँ; क्योंकि राज्यप्रवन्धसे लेकर कुडीके कामतक ऐसा कोई भी काम नहीं है जो विना किसी प्रकारके शारीरिक अथवा मानसिक श्रमके अच्छी तरह हो सके । श्रम केवल एक आवश्यकता ही नहीं है किंतु इसमें हर्ष और आनद भी है | एक इश्सि देखा जाय तो हमारा जीवन प्रहृतिके विरुद्ध है; किंतु दूसरी दृश्टिसि देखा जाय तो वह प्रकृतिका सहकारी है। वायु, पृथिवी, सूयं मादि सदैव हमारे अंदरसे जीवनशक्तिको निकाढते रहते हैं उसको पूरा करनेके लिए ही हम नित्य खाते पीते और पहनते हैं। प्रकृति हमोरे साथ काम करती है। खेतीके लिए भूमि साफ करती डै। जो वीज हम उसमें दोते हैं उसे उगाती और पकाती है| मानवी अमसे हमारे लिए रई और अनाज पैदा करती है | हमें यह बात भी ज भूलना चाहिए कि राजासे छेकर रंक तकके लिए जितनी चीजें खाने पीने तथा पहननेके काममें आती हैं. अथवा रहनेके लिए बड़े बड़े - «- महलेस्ति छेकर छोटे छोटे झोपड़ों तक जो स्थान वनाये जाते हैं, वे सव परिश्रमके ही फल हैं | मनुष्य एक दूसरेकी आवश्यकताओंको पूरी करनेके किए आपसमे পি हैं। किसान जमीन जोतकर अनाज पैदा करता है, जुछाहा




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