आदिपुराण समीक्षा की परीक्षा [प्रथम भाग] | Aadipuran Samiksha ki Priksha [Pratham Bhag]

Book Image : आदिपुराण समीक्षा की परीक्षा [प्रथम भाग] - Aadipuran Samiksha ki Priksha [Pratham Bhag]

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about लालारामजी शास्त्री - Lalaramji Shastri

Add Infomation AboutLalaramji Shastri

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
२ उपोद्धात । हमारी समझमें ऐसे ेगोको कुछ दिन तक स्बराज्यवादियोंके नेता महात्मा गांधी, विपिन- चद्रपार ओर ठोकमान्य' तिरुकके विचारका सनन करना चाहिये । महात्मा गांधीने ता. ३०-२३-१८ को जो इदौरकी नगर्याख्यानमाखमि ध्याल्यान दिया था उसमें उन्हेंने ख कहा था कि पश्चिमीय सम्यताका अनुकरण करनेसे भारतबर्षको कमी खवराज्य नहीं मिछ सकता। भारतवरषकी नौव धर्भपर छगी हुई है इसलिये प्राचीन सम्पताके अलुसार धर्मका पालन करते हुए हौ हमको खराऽ्य मिक सकता है । मि, पाटने भी यही बात कही थी कि भारः तवासियोंका युय ध्येय मोक्ष ই ओर खगाय उसका साधन है । कोकमान्य तिकका भी यही मत है, इसलिये धर्मकी जड़ काठनेसे कभी स्वराज्य नहीं मिठ सकता है। यह बात प्रयेकं भारतवासीको त्लौकार करनी ही पड़ती है। बाबूसाहबने “वध्य सदहाभो धम्मो, ( वतुघ्मवो धर्मः ), को शल्य मानकर दी कथा प्योको ठ भौर बनावटी व्हरानेका प्रयल किया है परन्तु उनवी दिखी समीक्षाके पढ़- ते खट सिद्ध होता है फ আঘন “নস অন্থাসী धम्मे! का ही गढ्य घोंठ दिया है। अथवा उसे उठाकर खंटीपर टांग दिया है | क्योंकि वस्त॒ अर्धात्‌ तल सात ह उनमें मालव ओर्‌ वैष भी বাজ या वस्तु है। उनमेंस प्रत्येफके शुभ और धशुभ ऐसे दो दो भेद होते हैं। शुभ--भालब अथवा किसी अपेक्षासे शुमबंधका फ़ल सर्गादिकी सामग्री है और जशुभ भात्तव भधवा भशुभ बंधका फछ नरकादिके दुःख ই। হু আজন वा वैधका स्वाभाविक धर्म है । परंतु समीक्षामें इसीकी आपने अन्याय बतलाया है | अथवा बिल्कुछ उत्ठा बतछाया है। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि जाप “वधु सहामो धम्मो ' का भी खंडन विया है ओर उसे जन्याय वताय ६ै। आपने अपना उद्देश सिद्ध करनेके लिये मोक्षमागप्रकाशमेस खर्गीधि श्रीमान्‌ प. टोडरम- उजीके कुछ वाक्य ठद्गृत फिये है । जिस प्रकार आपने जाति और वर्णविचार शीर्षक উত্তর कुछ आदिपुराणे शोक उद्धूत मिय थे ऽन शोकोकि आगे पीछेसे संबंध रखनेवाले छोक छोड़ दिये थे और फिर उनका मनमाना अर्थकर अपना साथ खींच लिया था उसीप्रकार आपने यहां भी श्रीमान्‌ पं, टोड्समठ्जीके वाक्योका दुरुपयोग विया है। पंडितजीने जिस अपेक्षाक्रों झेकर वै वाक्य लिखे हैं जो कि ऊपर नौचेका कथन वांचनेसे वह भपेक्षा स्पष्ट समझमें भा जाती है परंतु बाबूसाहबने उस अपेक्षाकों छोड़कर जितनेसे अपना मतरूष निकल्ते देखा उतने वाक्य हे लिये हैं । , जिप्त मोकषमागप्रफारकौ दुहाई देकर भापने इन कया्थोको रू ठहराया है जैसा कि आपने छिखा है / मोक्षमागप्रकाशप्रंथके इस कथनसे स्पष्ट सिद्ध है कि कथाम्रंथ किसी तरह भी श्रीसवज्ञदेवभाषित नहीं हो सकते और न जिनवाणी माने जा सकते हैं,.......... सच तो यह है कि ण्से क॒थाप्रंथोंको भी जिनवाणी बताना जिनमे इस प्रार्‌ भस्य कथते भरा हुआ है वातवे गिन वाणीको दूषित करना जर उसकी महिमा घटाना है » छादि, उती भो्मा्म- प्रकाशन इन्हीं कथाप्रंयोके विषयों डिखा है । “ प्रथमानुयोगतरिषैं जो गूलकथा हैं ते तो जैसी है




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now