भारतीय संस्कृति का विकास भाग - 1 | Bharatiy Sanskriti Ka Vikas Bhag - 1

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Bharatiy Sanskriti Ka Vikas Bhag -  1  by डॉ मंगलदेव शास्त्री - Dr Mangal Shashtri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ४५ | को पूर्वापर परिस्थितियों से अ्रसंबद्ध तथा. असंपक्‍त अ्रथवा आकस्मिक घटना के रूप मे ही देखते हूँ । परन्तु वास्तव में महान आन्दोलनों , एतिहासिक घटनाओ्रों और श्रवतारी महापुरुषों की पुवंवर्ती और परवर्ती परिस्थितियों में कार्यकारण- भाव की परम्परा रहती है। वैज्ञानिक पद्धति का कतंव्य है कि वह उसका पता लगाए और उसका निरूपण करे । किसी भी इतिहास के समान ही , भारतीय संस्कृति का इतिहास भी इसी प्रकार की कार्यकारण-भाव की परम्पराओं से निर्मित है । वैज्ञानिक पद्धति के अवलम्बन से ही हम उन परम्पराओं का अध्ययन कर सकते हैँ । भारतीय संस्कृति कै लम्बे इतिहास में काल-भेद से विभिन्न स्तरों का पाया जाना स्वाभाविक है । हमारा कतंव्य है कि हम, न केवल उनके परस्पर सम्बन्ध का हो , किन्तु प्रत्यंक स्तर की पूर्वावस्था और ग्रनन्तरावस्था का भी, उन-उन त्रूटियों का भी , जिनके कारण एक स्तर के पश्चात्‌ अगले स्तर का आना झावश्यक होता गया , पता लगाव। इसी प्रकार एक धारावाहिक जीवित परम्परा के रूप में भारतीय संस्कृति को हम समझ सकते हें । उपय्‌ कत प्रकार के अध्ययन के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति के विभिन्न कालों कै साथ हमारी न केवल ममत्वं कीया तादात्म्य की ही भावना हो , किन्तु सहानूभूति भी हो । वेज्ञानिक पद्धति के इन्हीं मौलिक सिद्धान्तों का अनुसरण करते हुए हम भारतीय संस्कृति की विभिन्न धाराओं का और उसकी लम्बी परम्परा का সি ग्रध्ययन प्रकृत ग्रन्थ में करना चाहते है । विषय-निदंश ऊपर हमन भारतीय संस्कृति की विभिन्न धारा्रों का उल्लेख किया है । इसका अभिप्राय यही है कि चिरन्तल काल से श्रविच्छिन्न प्रवाह के रूप में आनेवाली भारतीय संस्कृति की धारा में, भगवती गंगा की धारा में मिलन वाली सहायक नदियों की धाराओं के समान, तत्तत्कालीन विशिष्ट परिस्थितियों और अ्रावरयकताओं से उत्पन्न होनेवाली नवीन सॉंस्क्ृतिक उपधाराओ्ं का समावेश होता रहा है । वे उपधाराएँ मूलधारा में अपृथक-रूप से मिलकर एक होती रही हे । उन्होंने सतत-प्रगति-शील मूलवारा के साथ विरोध-भाव न रखकर, पूरकता के रूप में उसको समृद्ध ही बनाया है ।




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