भारतीय राजनीति में फासिस्ट प्रवृत्तियाँ | Bharatiy Rajneeti Men Fasist Pravrittiyan

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Bharatiy Rajneeti Men Fasist Pravrittiyan by शान्तिप्रसाद वर्मा - Shantiprasad Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रो फासिज़्म में बड़ी समानता दिखाई देती है। दोनों में ही तानाशाही का बाता- चरण हैं जो जनतन्त्र के विकास का सबसे वड़ा अत्रु है; दोनों में ही व्यक्ति के राजनैतिक अस्तित्व को बिल्कुल ही कुचल दिया जाता हैं; दोनों में ही शह्रि के नग्न रूप को महत्त्व दिया जाता हैं; दोनों के ही हाथ निर्दोष मानव के रक्क से सने हुए पाए जाते हैं । दूसरी ओर पूंजीवादी देशों में जिस जनतन्त्र की चर्चा की जाती है उसे समझाने में भी में अपने को असमर्थ पाता हूं; क्योंकि में नहीं मानता कि पूंजीवादी व्यवस्था के साथ-साथ, उस व्यवस्था के प्रश्नय में जिसका समस्त आधार समाज को शोषित और घोष क, ग़रीब और अमीर, श्रमजीवी और पूंजीपति, इन दो भागों में बांठ देना है, और मानव-समानता की भावना को कुचल देना हूँ; सच्चा जनतस्त्र कैसे पनप सकता हैं। मैं तो इस संबंध में वहुत स्पष्ट हूं कि जनतंत्र को यदि जीवित रहना हूँ तो पूंजीवाद को खत्म हीना पड़ेगा | पूंजीवाद पहिले अपने भौतिक स्वार्थ को देखता हैँ, जन-कल्याण को नहीं, और यदि जन-कल्याण के नाम पर हम उसे कुछ टुकड़े फेंकते हुए पाते हैं तो यह तभी तक जब तक जन साधारण उन टुकड़ों से संतुष्ट हो जाता है, पर जब वह अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो जाता है, और गुर्राने लुगता हैं, तब पूंजीवाद उसकी इस मांग को कुचल देने के लिए फासिज्म का भद्दे से भद्दा रूप धारण करने में हिचकिचाता नहीं हैँ । १६३६ के पहिले के वर्षो में संसार के प्रमुख जनतंद्रीय देशों ने, जिनमें पूंजीवादी व्यवस्था क़ायम थी, जनतन्त्र के मूल-सिद्धान्तों के साथ जंसा विदवासघात किया मौर जिस हूदयहीनतां के साथ उसके अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया उसके वाद किसी भी देश में पूंजी- वाद से किप्ती प्रकार की भलाई की अपेक्षा करना भूल हो नहीं जुर्म होगा । जाज के यूग का एक सवसे वड़ा काम जनतघ्र को पूंजीवाद के चंगल से मुक्त करना हैं । इस पुस्तक में क्या हे! इस प्रकार हम देखते हैँ कि आज फासिज्म १६३५ के समान संसार के




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