माटी मटाल भाग - 2 | Maati Matal Bhag 2
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
326
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about गोपीनाथ महांती - Gopinath Mahanti
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शूल रहौ थी उसकी चेतना । उसका चुपचाप पड़े रहने को मन कर रहा था । एक-एक
कर सब चली आयी । दरवाजे पर थी बुढ़ियां शिखरा की माँ। उसके साय सपनी की
माँ थी। वह कैछा की माँ की साथिन है, छम्बी हदली मौर । यातं अमौन की स्त्री
ने बाहरवाली कोठसी से पूछा, “रात में कौन यहाँ रहेगा, धर की व्यवस्था केकया
হী?” वगैरह 1
फेला की माँ को सेभालने की व्यवस्था हुईं। गाँव के छोग बाहर बैठ उपाय के
बारे में सोचने छगे, मानो यह गाँव-भर को समस्या हो ।
सिन्धु चौधरी, श्वि शौर उसकी माँ छौट आये ।
खाद पर फेटी-डेटी केला को स्त्री आधे चेतनावस्या में सोचने की थेष्टा कर
रही थी । प्िर में जैसे पहिया घूम रहा है। विश्वास ही नही होता कि इस तरह सव
भर्म जाता है। कभी-कभी छगता जैसे कुछ गड्ुमह हो गया है, और कभी-कभी ऐसा
लगता मानों वह बह सहों । पुराती सनक याद आते-आते फिर सिर में पहिया धूमने
छगता | वस आदमी ही आदमी ! वे चेहरे सत सिखवछाते दिस जाते । उसके साय याद
था जाता है--केला का चेहरा, सास का चेहरा । किसी चेहरे पर ध्यान के अटकते ही
सिर में फिर गोलमाछ छग जाता । कभी कुछ-कुछ याद आते को तरह छग रहा हैं,
मानो जानन्वूभ्कर बहुत दूर आगे का गयी है, फिए याद आते है वे हो प्रश्त--तुम कौन
हो ? कौन ? कौन ? कुतूहरूमय चेहरे विभंग-विकृत दिख रहे हैं । किसी के सारे चेहरे
पर सिर्फ आँखें ही आँखें, किसो के सिर्फ़ दांत, किसी की नाक, चिबुक नोचे सूल गयी
है । कोन क्तिने प्रकार के है। और दिस रहे है चेहरे सिन्दुर से लिपे-भरे, जिस तरह
कपा होता ह देवी की मूर्ति पर, देवी-पेड़ के तने पर । और दिख रहा है कि वे काछी
साह़ियाँ, रंगीन साड़ियाँ पहने आ रही हैं। पुनः सव कुछ उबल-उफनकर बह जाता है
बाढ़ की तरह । कितने रूप, कितनी छाबाएँ है !
“पेश तो जी करता है मैं यही रह जाऊं, माँ !” छवि ने कहा ।
“नही, वेबकूफी होगी वेटी, तू नहीं जावदी 1”
“नहीं, बुम क्या जानो !” सिन्धु ने बात काटकर कहा, “बेचारी के सिर में कुछ
हो गया, वस छोगों ने उसे पागछ ही बना दिया [””
छवि की माँ कहने छंगी, “पायरू । तुम कुछ जानते हो ! तुमते भागवत पढ़ी
इसलिए वह चुप रह गयी, केवल डर से, नही तो बह चुप होती ! देखना, वह फिर कैसे
বগা करती हैं। यह দা इतने में ही पूरा हो जाता है ?” इसके बाद उसने कहा, “धर्म
भी दो कुछ है | जो दूसरो के नाम पर झूठ रटते है, उन्हें भी तो फिर कोई देखता है?
अपने किये करम का फल, जिस राह से हो, मिलेगा ही !”
#छि: छि;, तुम यह सव वया कहती हो 2”
॥ “नही, मैं क्या कुछ जानती हूँ ? दोपहर में बैठक जुड़ती है । गाँव की औरतें
जमा होती हैं ।”
मारीमठाकझू ॥ ६२९
User Reviews
No Reviews | Add Yours...