अंगारे | Angaare

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Angaare by भगवती प्रसाद बाजपेयी - Bhagwati Prasad Bajpeyi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रहस्य की बात ड मात्र थी--स्वप्न-सी अकल्पित, मृग तृष्ण।-सी ऐन्द्रजालिक | वह अकेला आया है ओर अकेला जायगा । -- “लोग कहा करते है, मानवपरकृति ग्रपरिवतंनशौल है । लोग समभ त्रेठते है कि मनुष्य की श्रान्तरिक रूप-रेखा नहीं बदलती । संसार बदल जाता है, किन्तु मानवात्मा की प्रेरणा सदा एकरस अक्षुर्ण रहती है । किन्तु इस प्रकार के निष्कर्ष निकालते समय लोग यह भूल जाते हैं कि मनुष्य की स्थिति वास्तव में है क्या ? जो सत्ता जगत के जन-जन के साथ समन्वित है, जिसकी चेतना और अनुभूति ही उसकी मूत अवस्था है, किसी के स्पर्श और आधात के अनुषंग से उसका अपरिवजन केसे संभव 0१) । दिन आये और गये | विपिन अब कलाविद्‌ न रहकर दाशनिक हो गया । | মি ] उसके पिता अत्यधिक बीमार थे। यहाँ तक कि उनके जीवन की कोई आशा न रह गई थी। वे रायसाहब थे। उन्होंने अपने जीवन में यथेष्ट सम्पत्ति और वैभव का अ्जेन किया था | अपनी सदाशयता और विनय- शीलता के कारण नगर-भर में उनकी-सी सर्वाधिक प्रतिष्ठा का कहीं किसी में साइहश्य न था। नित्य ही अनेक व्यक्ति उनके यहाँ दर्शन तथा मंगल-कामना प्रकट करने करे लिये श्राते रहते ये | वृद्धता में तो रायसाहब का अंग-अंग शिथिल-ध्वस्त हो ही रहा था ; किन्तु मोतियाबिन्दु के कारण उनके नेत्रों की ज्योति भी अत्यंत ज्ञीण हो गई थी । यहाँ तक कि वे अपने आत्मीय जनों का परिचय दृष्टि से ग्रहण न करके स्वर से प्राप्त करते थे । एक दिन की बात है । रात के आठ बजे का समय था | रायसाहब बोले---“कहाँ गया रे विपिन १?” विपिन ने तुरन्त उत्तर दिया--“में यहाँ पास ही तो बैठा हूँ बाबू ! कहो, क्या कहते हो £




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