जैन धर्मं का प्राचीन इतिहास | Jain Dharm Ka Prachin Itihas

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Jain Dharm Ka Prachin Itihas  by परमानन्द शास्त्री - Parmanand Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भांग रै केश्यग्निं केशो ভিত केशोी विभति रोदसी। केकी विश्व स्वर्दशे केशीवे ज्योति रुज्यतें |। (ऋग्वेद १०-१३६-१) केशी श्रगिनि जल तथा स्वर्ण और पृथ्वी को धारण करता है, केशी समस्त विश्व तत्त्वों के दर्शन कराता है । केशी ही प्रकाशमान (ज्ञान) ज्योति (केवल ज्ञानी) कहलाता है। केशी की यह स्तुति वातरशना मुनियों के कथन में की गई है। जिससे स्पष्ट है कि केशी वातरशना मुनियो मे प्रधान थे । केशी का अर्थ केश वाला जटाधारी होता है सिंह भी अपनी केशर (भ्रायाल) के कारण वेशरी कहलाता है । ऋग्वेद के केशी श्लौर वातरशना मुनि श्लौर भागवत पुराण मे उल्लिखित वातरशना श्रमण एवं उनके श्रधिनायक ऋषभ की साधनाओ की तुलना दृष्टव्य है' क्योकि दोनों एक ही सम्प्रदाय के वाचक है। वैदिक ऋषि वसे व्याग म्मोर तपस्वी नही थे, जसे वातरशना मुनिथे। वे गृहस्थ थे, यज्ञ यज्ञादि विधानों में श्रास्था रखते थे, ओर भ्रपनौ लौकिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए तथा धन इत्यादि सम्पत्ति के लिए इन्द्रादि देवताओं का ग्राद्धान करते थे, किन्तु वातरशना मुनिश्रन्तवह्यि ग्रन्थियों के त्यागों, शरीर से निर्माही, परीषहजयी झौर कठोर तपस्वी ये,वे शरीर से निस्पृही, वन कदराप्रो, गुफाभ्रो, ्रौर वक्षो के तले निवास करते थे । श्रमण सस्कृति वेदो से प्राचीन है, क्योंकि वेदों में तीन तीर्थकरों का-ऋषभदेव, अजित नाथ और नेमिनाथ का--उल्लेख ইৎ | লহা में ऋग्वेद सबसे प्राचीन माना जाता है, उसमें वातरशना मुनियों में श्रेष्ठ ऋषभदेव का उल्लेख होने से ज॑न धर्म की प्राचोन परम्परा पर महत्वपूर्ण प्रकाश पडता है। यद्यपि वेदों के रचनाकाल के सम्बन्ध मतभेद पाया जाता है। कुछ विद्वान उन्हें ईस्वी सन्‌ से १००० वर्ष पूर्व को रचना मानते हे ओर कुछ সাং লাই হট मानते है। यदि वेदों का रचना ईस्वी सन्‌ से १५०० वर्ष भी पूर्व मानी जाय तो भी श्रमण सस्कृति प्राचीन ठहरती है । जैन कला में ऋषभ देव की अनेक प्राचीन मूर्तियां जटाधारी मिलती है । आचार्य यति वृषभ ने तिलोय पण्णत्ति में लिखा है कि उस गगा कूट के ऊतर जटा म॒कुट से शाभित आदि जिनेन्द्र की प्रतिमाए है। उन प्रतिमाओं का माना प्रभिषेक करने के लिए ही गगा उन प्रतिमाश्रों के ऊपर अ्रवतीण हुई है। जैसा कि निम्न गाथा से स्पष्ट है । आदि जिण पडिमाश्रो जड़मउडसेहरिल्‍्लाशो। पडिवोवरम्मि गया प्रभिसित्तु मणा व पडदि ॥ रविषण न पद्मचरित (३-२८८) मे--“वातोद्धता जटास्तस्य रजुराकुल मूर्तयः |” और पुस्ताट सघी जिमसेन ने हरि वश पुराण(६-२०४) मे “स प्रनम्ब जटाभार स्राजिष्णु” रूप से उल्तेखित किया है। तथा अपश्रश् भाषा के सुकमाल चरित्र मे भी निम्न रूप उल्लेख पाया जाता है -- “पढमु जिणवरु णविविभावेण । जड-मउड वहू सिउ विसह्‌ मयणारि णासणु । प्रमरासुर-णर-युय चलणु । सत्ततत््व णवपयस्य णवणयहि पयासणु लोयालोय पयासयर जसुउप्पण्ण णाणु । सां पणवप्पिणु रिसह्‌ जणु प्रक्ठय-सोक्ल णिहाणु 1 जटा-कश-केशर सव एक्‌ हौ अ्रथं के वाचक टे जटा सटा कंशरयो” इति मोदिनी । इस सव कथन पर उक्त श्रथ की पुष्टि हवाती है। केंशी श्रौर ऋषभ एक ही है, क्योंकि ऋग्वेद की एक ऋचा में दोनो का एक साथ उल्लेख हुआ हैं श्रोर वह इस प्रकार है.-- ककदवे वृषभो युक्त झ्लासोद श्रवाचीत्‌ सारयिरस्स केशी। दुधयु क्तस्प द्रवत.सहानस ऋषच्छल्ति मा निष्पदों मुदूगलानीस ।। (ऋग्वेद १०-१०२, ६) १. भवगत पुराण ५-६, २५-२१ २. 170180 ?1110४०7॥1५ ४०1. 1 ७9. 287




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