वीर और वीराड्गनाएँ | Veer Aur Viranganaen

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Veer Aur Viranganaen  by परमानन्द शास्त्री - Parmanand Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ओक्षभ्ण श्प्र 2 3०७००७५ ० >न०+० ५०-०५ + ०5 डीजल लिथत अल जब >> + । फट्टा--मेरे यहाँ झाने फा उद्देश्य यह हैकि फौरव ओर पाएडव आपस में सन्धि कर लें।इस युद्ध से क्षज्िय-छुल का सदारदोगा, एथ्बी बीर-रदित हो जायगी, भौर,लाभ कुछ नहीं दोगा। पाएडवों ने तेरद वर्ष तक घनवास तथा श्रज्ञातवास कर फे अपनी प्रतिज्ञा का पालन फिया, अब कौरवों फो अपने फर्सब्य से घ्युव नहीं होना चादिये । पाण्डय फेवल पाँच गाँव लेकर सतुष्ट रद सकते झैं। ध्रव पाएटदों फे साथ यदि न्‍्यायोचित ध्यपद्वार किया ज्ञाय, तो ये कौरवों फे पिछले सम ध्मपराध ध्ामा करने को सैयार छू” । सचि फी स्यायपूर्य इन शर्तों का सभी क्ोगों ने अनुमोदन फ़िया । भीष्म, द्रोण, विंदुर ओर घृतराष्ट्र ने बहुत समझाया, पर दुर्बुद्धि दुर्योधन ने एक न मानी । अस्त मे श्रीकृष्ण _ ने शपने उद्देश्य की मिद्धि में विफल होकर रोप से फद्दा फि अब युद्ध फ सित्रा और कोई उपाय नहीं। गीता का उपदेश मद्दाभारत के युद्ध में तीक्षण्ण अजुन क सारथि घने। उस प्रबोण सारथि ने अजुन फे रथ को दोनों ओर की सेनाओं फे बीच में लाकर सडा फर दिया। चारो ओर दृष्टि डालने से अजुन फे रोंगटे सड़े हो गए । अपने गुरुभनों, सम्बन्धियों और मित्रों फो मारने फे विचार ने उसे भयभीत कर दिया | उसके हृदय में मोह ने घर फर लिया। लड़ाई में उसे अपने कुल का सद्दार और अधममददी दीजने लगा। बह क्षत्रिय धर्म से तथा अपने कष्तेब्य से मुँद मोडने लगा, प्रौर श्र क्त में गराए्डीव छोड़कर रथ पर निश्चल दोकर बेठ गया।




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