हिन्दुस्तानी नाट्य समीक्षा विशेषांक | Hinustani Natya Samiksha Visheshank

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ हिन्दुस्तानो झाग ९७ अन्तिम नाटक 'ब्रुवस्वासिनी में तो सम्राद रामग्र॒ुष्च के प्रकोष्ठ में विदूषकों के तीन रूप दृष्टिगत होते हैं । वे बोने, कुबड़े और हिजड़े के रूप में आते है और अपनी परिहासपूर्ण भाषा-शैली में रामचुप्त के मनोरंजन की भूमिका बचाते हैं। प्रसाद जी का चन्द्रगुप्त' नाटक सत्र नाटकों से बड़ा है | वह चार अंकों में लिखा गया है, किन्तु वीररस से पूर्ण होते के कारण उसमें विदृषक को आवश्यकता नही समझी गयी । असादोत्तर काल के नाटककारों ने विदूषक जैसे विशिष्ट নাজ নদী ताटक में लाते की आवश्यकता नहीं समझी ¦ उन्होने नाटके के अन्तर्गत किसी पात्र की ही हास्य और व्यंग्य का प्रतीक बनाकर विंदृषक के अभाव की पूति कर ली। श्री सुमित्रानन्दन पन्‍्त के 'ज्योस्स्ता' नाटक में उल्लू ने ही छाया से अपनी मूर्खतापूर्ण बातें कर परिहास की स्थिति उत्पन्न की है। एकांकी नाटकों मे विशिष्ट पात्रों से ही हास्य और ब्यंग्य की स्थिति उत्पन्न की गयी है । श्री उदय्ंकर भट्ट चे अपने एकांकी बीमार का इलाज' में सरस्वती - कान्ति की माँ के अन्ध- विश्वासों के आधार पर हास्य उत्पन्न किया है। मेरे एकांकी' नाटक 'महाभारत में रामायण” में बंगाली पात्ष घोष के हिन्दी उच्चारण का ढंग ही हास्य उत्पन्न करता है। इस भाँति आधुनिक युग में प्राचीन नाटकों का विदृषक अब मात्र 'हास्य और व्यंग्य' का शाव्दिक रूप लेकर ही रगमंच' पर रह गया है। + | ६4 भ १ के त १ ४-प्रयाग स्ट्रीट इलाहाबाद




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