संस्कृत व्याकरण | Sanskrit Vyakaran
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20.04 MB
कुल पष्ठ :
504
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)न्न्देन्-
का कारण और सम्बद्ध वाक्यों की सार्थकता विवेचित और व्याख्यात हूं
दूष्टान्तस्वरूप कथाएँ वर्णित या निर्मित हैं, और व्यृत्पत्तमूलक अथवा अन्य
विभिन्न कल्पनाएँ प्रतिपादित हैं । इस प्रकार की विपयवस्तु ब्राह्मण ( स्पष्टतः
ब्रह्मन् या पूजन से संबंधित ) कहलाती है । शुक्ल यजुर्वेद में यह संहिता या
मंत्रों और वाक्यों के ग्रंथ के साथ-साथ स्वतंत्र ग्रंथ में अलग की गयी हैं और
इसे शतपथ-ब्नाह्मण, सौ मार्गों का ब्राह्मण कहते हैं। इसी प्रकार के अन्य
संग्रह वैदिकशास्त्र की अन्य विभिन्न शाखाओं से सम्बद्ध प्राप्त होते हैं, और
इनके लिए झयाखा अथवा अन्य किसी भेदक शीर्ष को पहले जोड़कर नब्नाह्मण की
सामान्य संज्ञा होती हैं । इस प्रकार ऋग्वेद की शाखाओं के ऐतरेय और
कौषीतकि-ब्नाह्मण होते हैं, सामवेद के पंर्चावदा और पघर्डाविश और अन्य
छोटे ग्रंथ हैं, अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण हैं; सामवेद का जैसिनीय या
तबलकार-ब्नाह्मण हाल ही में ( बर्नेल ) भारतवर्ष में उपलब्ध हुआ है;
तैत्तिरीय ब्राह्मण समाननाम वाली संहिता की तरह मंत्र और ब्राह्मण के
मिश्रित का संग्रह है, किंतु परिशिष्ट-जेसा और उत्तरकाल वाला । ये ग्रंथ समान
रूप से शाखाओं द्वारा आचार ग्रंथों के रूप में गृहीत हैं, और इनके अनुयायी
इनको उसी बड़ी सतर्कता से सीखते हैं जो संहिताओं में दृष्ट हैं, और पाठ-
संरक्षण लेकर इनकी स्थिति उसी प्रकार उत्कृष्ट है । कुछ अंशों में एक जैसी
विषय-वस्तु इनमें प्राप्त होती हैं--एक ऐसा तथ्य हूँ कि जिसके स्वरूप अभी
तक पूर्णत: ज्ञान नहीं हुए हैं ।
अपनी विषयवस्तु के अधिकांश की निस्सारता के बावजूद ब्राह्मण भारतीय
प्रतिष्ठानों के इतिहास में अपने प्रभावों के चलते अत्यधिक उपादेय हैं; और
भाषा-शास्त्रीय दृष्टि से ये कम महत्त्व के नहीं हैं, क्योंकि ये वहुत अंशों में श्रेण्य
और वैदिक की मध्यवर्ती भाषा का प्रतिनिधित्व करते हैं, और एक बड़े पैमाने
पर गय शैली का आदर्व उपस्थित करते हैं, और वह भी एक ऐसी शौली का,
जो मुख्यतः स्वाभाविक और सहज विकसित है और जो प्राचीनतम और सर्वाधिक
प्रारम्भिक भारत-यूरोपीय गद्य हैं ।
ब्राह्मणों के साथ समान स्वरूप वाले उत्तरकालिक परिदिष्ट ग्रंथ कभी-
कभी प्राप्त होते हैं जो आरण्यक ( आरण्यक-प्रकरण ) कहे जाते हैं--यथा;
ऐतरेय-आरण्यक, तैत्तिरीय-आरण्यक, वृहद-आरण्यक, इत्यादि । और
इनके कुछ में से, या ब्राह्मणों से भी प्राचीनतम उपनिषदें ( गोष्टियाँ, घार्मिक
विपयों पर आख्यान ) निकली हैं--किंतु जो प्रवर्धित होती रहीं और अपेक्षा-
कृत आधुनिक काल तक परिवधित हुई हैं । उपनिपदें उन सरणियों की एक में
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