गुप्तजी की कला | Guptji Ke Kala
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
178
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about मैथिलीशरण गुप्त - Maithilisharan Gupt
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गुप्तनजी और खड़ी वोली ११
अथवा रूपसारायण पाण्डेय से एक आवश्यक भ्श्ना का
उत्तर सुनिए-
श्रास्तिकता भें श्राज धोर् नास्तिकता दई
ईश्वर तो दे? मगर न उसका भय है भाई ॥
करते कठिन कुकर्म नही उरते हैं मन में।
भड़ओं के भी भक्त लगाते छापा तन में ॥
इस प्रकार चारों तरफ बुद्धि विपयेय दो रदा।
গলা जाति के लोप का जिसे देख भय हो रहा।
अथवा पांडय लोचनप्रसादजी से राना सज्जनसिह की बाबू
हरिश्चन्द्र के प्रति उदारता का वृत्तान्त पटियेः-
पद्म राग के आकर में क्या काँच कभी द्वोता उत्पन्न ।
सिंह-सिंद द्वी है यद्यपि चद्द दो जावे अति विवश विपन्न ॥
इस नीरसता युक्त कृपणता के नवयुग में भी चित्तोर ।
बना हुआ है तू भारत की न्॒पति-मरठली का सिरमौर ॥
৯ ১৫ €
चिद्या-भूषित सत्कविता का आदर करने से सविशेष,
वन्दनीय दो रहै सर सदश राना सज्जन सिद नरेश-
“बाबू हरिश्चन्द्र जी | सममे राज्य हमारा श्रपनी सीर
धन्य धन्य ऐसी आज्ञा के देने वाले भूपति वीर |
ओर इन सब रोचक उदाहरणों मे आपको यह बात मिलेगी
कि खड़ी बोली के काव्य-भापा की रूपरेखा तो वन गयी है)
फिर भी इसने अभी वह तल 18090270: अ्रहण नहीं कर
पाया कि कैसा ही उतार-चढ़ाव उसे मिले, कितनी रंगीनी उसे
भरनी पड़े वह अस्त-व्यस्त, शिथिल अथवा दुर्विनीत नहीं होगी.
उसने अभी अपने सुस्थिर मुकर रूप से कोई लम्बी यात्रा नहीं
कर पायी । गुप्तजी ने विविध भावों के हिडोलो में सुला कर,
विविध दृश्यों का पर्यवेक्षण कराके, विविध तकों में वाकबवैदर्ध्य
User Reviews
No Reviews | Add Yours...