श्रध्दांजलि संस्मरण | Shradhdanjali Sansmaran

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Shradhdanjali Sansmaran by मैथिलीशरण गुप्त - Maithilisharan Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हमारे राजेन्द्र बाबू मैंने उनसे निवेदन किया था कि आपका दिया सम्मान तो सौभाग्य का विषय है, परंतु इस क्षेत्र में मेरा क्या कृतित्व हो सकता है ? राजनीति की तो बात अलग रही, राजधानी के नागरिकों में भी अपने को कैसे निभा पाऊंगा, समझ नहीं पाता । मुझे यही संकोच है । मेरा अधिकांश जीवन गांव में ही बीता है । वहीं बैठकर मैं कुछ लिखता रहा हूं । उन्होंने कहा--यह तो राष्ट्रीय सम्मान है । आवश्यक नहीं कि आप सदेव यहां आया करं । नियम की रक्षा करते हुए कभी-कभी आ जाया करं, यही यथेष्ट है । सौभाग्य से दिल्ली का जलवायु भी मेरे अनुकूल रहा और मित्रों के आकर्षण का कहना ही क्‍या ? लोगों ने मुझे निभा लिया । वे निरंतर आते रहे और मैं उनसे लाभान्वित होता रहा। नार्थ एवेन्यू, जहां मैं रहता था, राष्ट्रपति भवन के पाइव में ही है । वहां से संसद भवन भी निकट है, इसलिए मुझे थोड़ा पैदल चलने का सुयोग भी मिलता रहा । राष्ट्रपति भवत में समय-समय पर उत्सव-आयोजन होते रहते हैं । सब संसद सदस्यों के समान मुझे भी वहां के निमंत्रण मिलते रहते थे। इसके अति- रिक्त राष्ट्रपति निज के समारोह में भी कृपा कर मुझे बुला लिया करते थे । बीच-बीच में मुझे फोन पर ही उनकी सूचना मिल जाती थी। उस वंभवपूणं वातावरण में राजेन्द्र बाबू की आडंबर-रहित उपस्थिति बड़ी ही स्पृहणीय दिखाई देती थी । वे आस्थावान आस्तिक पुरुष थे । उनकी निष्ठा निशछल और ति्वल थी । ह कोई হন नहीं यदि ऐसे विषयों में पंडित जवाहुरलालजी से उनके मतभेद रहे हों | परंतु वे व्यक्तिगत विषयों में स्वतंत्र थे । सुना है, तिब्बत का चुपचाप चीन के चंगुल में चला जाने देना उनको अभिप्रेत नहीं था। इस दुःख से उनकी आंखे भर आई थीं। कित्‌ सौम्य ओर रांत प्रकृति के कारणं वे परस्पर विवाद नहीं बढ़ने देना चाहते थे । वे अपनी मर्यादा भी जानते थे ।




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