जैनेन्द्र सिद्धांत कोश | Jainendra Siddhant Kosh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
43 MB
कुल पष्ठ :
646
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)करण
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करण सामान्य निर्देश्च
करणका भथं इन्द्रिय ब परिणाम ।
श्न्दरिय व परिणा्मोको करण कश्नेमे हेतु ।
दु्ाकरण निर्देश
दशकरणोंके नाम निरदेश ।
कमं प्रकृतियोमिं यथासम्भव १० करण अधिकार
निदंश !
गुणस्थानोंमें १० करण सामान्य व विशेषका भषि-
कार निदरा |
ज्रिकरण निर्देश
त्रिक्ण नाम निर्देश ।
सम्यक्त्व व चारिश्र प्राप्ति विधिमें तीनों करण भवश्य
होते हें ।
मोहनीयके उपशम क्षय व क्षयोपशम विधि में
जिकरणोंका स्थान -बै० बह वह नाम
अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनामें त्रिकरशोंका स्थान
--दै० विसंयोजना
त्रिकरणका भादात्म्य।
तीनों करणोंके कालमें परस्पर तरतमता।
तीनों करणों की परिणामविशुद्धियोंमें तरतमता ।
तीनों करणोंका कार्य भिन्न-भिन्न कैसे है ।
निदं
अधःप्रवृत्तकरण निदश्च
अध:प्रवृत्तकरणका लक्षण |
अधःपवृत्तकरणका काल |
प्रति समय सम्भव परिणामोंकी संख्या संट्ष्टि व यंत्र ।
परिणाम संख्यामें भ्रंकुश व लांगल रचना ।
परिणामोंकी विशुद्धताके भविभाग प्रतिच्छेद, संदृष्टि
व यंत्र ।
परिणामोंकी विशुद्धताका भ्रल्पवहुत्व व उसकी सप्प «
वत् चाल
अप: प्रवृत्तकरण के चार आवश्यक ।
सम्यक्त्व प्राप्तिति पहले भी सभी बीबोंके परिणाम
अधःबरण रूप दी दोते हैं।
ह भह
भपूदकरण निदश्च
भ्पूवंकरणका लक्षण ।
भरपूवंकरणका काल
प्रति्त॑मय सम्म परिणामोकी संख्या ।
परिणामोंको विशुद्धतामें बृद्धिकम
अपूवकरणके परिणामों की संदृष्टि व यंत्र ।
अपूयकरणके चार आवश्यक |
परिशामोंकी समानताका नियम समान समयवतीं
जीवोंमें ही है | यह केसे जाना ।
६ | गुणअंणी भादि भनेक कार्योका कारण होते दुए
भी परिणामोमें अनेकता क्यों नहीं ।
রা, পপ রা 7 77 1
५ २. दशकरण निर्देश
७ | अपूषकरण व भभःपवृत्तकरणमे कथंचित् समानता
व असमानता । |
निदेश |
६ | अनिवुक्तिकरण निदश
१ | अनिषवृक्तिकरणका लक्षण ।
२ | भनिवृक्षिक्रणका काल |
३ | भनिवत्तिकरशमें प्रतिसमथय एक दी परिणाम
सम्भव है । |
४ | परिणामोंकी ब्शिद्धतामें वृद्धिकम ।
& | नाना बीवोमें योगोंकी सदृशताका नियम नहीं है।
६ | नाना नीरवोमं कायडक घात आदि तो समान दोते
हैं, पर प्रदेशवन्ध भसमान ।
७ । भअनिवृत्तिकरण व भपूवं कर णमे भन्तर ।
| |
|
१. करणसामान्य निर्देश
१. करणका लक्षण परिणाम व इन्त्रिय---
रा, वा.६।१२।१।५२३।२६ करणं चक्रादि । ब्च्चक्रु आदि हन्द्रिपोंको
करण कहते हैं । ५
ঘ. १/१.१,१६/१८०/१ करणाः: परिणामा! । ज्करण हांग्दका अथ
प्रिणाम् है ।
२. हन्द्रियों व परिणामोंकों करण संज्ञा देनेमें हेतु--
ध. ९।१,६-८।४।२१७।५ कधं पररिणामाणं करणं सण्णा । ण एस दोसो,
असि-वासीणं व॒सहायतमभावविवक्छाए परिणामाणं करणत्तुब-
लंभादो । =प्रश्न-प्रिणामोकी “करण ' यह संज्ञा कैसे हुई 1 उत्तर--
यह कोई दोष नही; क्योकि, असि ( सलबार ) ओर बासि ( बसूला )
के समान साधकतम भावकी विवश्चामेँ परिणामोके करणपन। पाया
जाता है ।
भ. आ./बि./२०/७१/४ क्रियन्ते रूपादिगोचरा विज्ञप्य एभिरिति
करणानि इन्द्रियाण्युच्यन्ते कचित्करणदाब्देन । > क्योंकि इनके द्वारा
रूपादि पदार्थोको प्रहण करनेबाले ज्ञान किये जाते हैं इसलिए
इन्द्रियोंको करण कहते हैं ।
२. दशकरण निर्देश
१, दशकरणोंके नाम লিলৃহা
गो. कम ./०३७।६६१ बं धुहृष्णकरणं संकममोकट टदीरणा सत्तं । उद्-
युबसाम णिधत्ती णिकाचणा होदि पिपी ।४३७। ~ मन्ध, उत्कर्ष ण,
संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्व, उदय, उपदाम, निधत्ति अर
निःकाचनाये दक करण प्रकृति प्रकृति प्रति संभवे है ।
२, कम प्रकृतियोंमें यथासम्मद दश करण अधिकार निर्देश
गो. क,मु./४४१,४४४/१६३,४६६५ संकमणाकरणुणा णबकरणा होंति सब्ब
জাভতা | सेसाणं दसकरणा अपुन्बकरणोक्ति दसकरणा |४४१। अंधु-
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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