जैनेन्द्र सिद्धांत कोश | Jainendra Siddhant Kosh

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Jainendra Siddhant Kosh by जिनेन्द्र वर्णी - Jinendra Varni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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करण च 2 न क र & > 9९ ४ ~ ७ 2 > ० ~ छ ^ € करण सामान्य निर्देश्च करणका भथं इन्द्रिय ब परिणाम । श्न्दरिय व परिणा्मोको करण कश्नेमे हेतु । दु्ाकरण निर्देश दशकरणोंके नाम निरदेश । कमं प्रकृतियोमिं यथासम्भव १० करण अधिकार निदंश ! गुणस्थानोंमें १० करण सामान्य व विशेषका भषि- कार निदरा | ज्रिकरण निर्देश त्रिक्ण नाम निर्देश । सम्यक्त्व व चारिश्र प्राप्ति विधिमें तीनों करण भवश्य होते हें । मोहनीयके उपशम क्षय व क्षयोपशम विधि में जिकरणोंका स्थान -बै० बह वह नाम अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनामें त्रिकरशोंका स्थान --दै० विसंयोजना त्रिकरणका भादात्म्य। तीनों करणोंके कालमें परस्पर तरतमता। तीनों करणों की परिणामविशुद्धियोंमें तरतमता । तीनों करणोंका कार्य भिन्न-भिन्न कैसे है । निदं अधःप्रवृत्तकरण निदश्च अध:प्रवृत्तकरणका लक्षण | अधःपवृत्तकरणका काल | प्रति समय सम्भव परिणामोंकी संख्या संट्ष्टि व यंत्र । परिणाम संख्यामें भ्रंकुश व लांगल रचना । परिणामोंकी विशुद्धताके भविभाग प्रतिच्छेद, संदृष्टि व यंत्र । परिणामोंकी विशुद्धताका भ्रल्पवहुत्व व उसकी सप्प « वत्‌ चाल अप: प्रवृत्तकरण के चार आवश्यक । सम्यक्त्व प्राप्तिति पहले भी सभी बीबोंके परिणाम अधःबरण रूप दी दोते हैं। ह भह भपूदकरण निदश्च भ्पूवंकरणका लक्षण । भरपूवंकरणका काल प्रति्त॑मय सम्म परिणामोकी संख्या । परिणामोंको विशुद्धतामें बृद्धिकम अपूवकरणके परिणामों की संदृष्टि व यंत्र । अपूयकरणके चार आवश्यक | परिशामोंकी समानताका नियम समान समयवतीं जीवोंमें ही है | यह केसे जाना । ६ | गुणअंणी भादि भनेक कार्योका कारण होते दुए भी परिणामोमें अनेकता क्‍यों नहीं । রা, পপ রা 7 77 1 ५ २. दशकरण निर्देश ७ | अपूषकरण व भभःपवृत्तकरणमे कथंचित्‌ समानता व असमानता । | निदेश | ६ | अनिवुक्तिकरण निदश १ | अनिषवृक्तिकरणका लक्षण । २ | भनिवृक्षिक्रणका काल | ३ | भनिवत्तिकरशमें प्रतिसमथय एक दी परिणाम सम्भव है । | ४ | परिणामोंकी ब्शिद्धतामें वृद्धिकम । & | नाना बीवोमें योगोंकी सदृशताका नियम नहीं है। ६ | नाना नीरवोमं कायडक घात आदि तो समान दोते हैं, पर प्रदेशवन्ध भसमान । ७ । भअनिवृत्तिकरण व भपूवं कर णमे भन्तर । | | | १. करणसामान्य निर्देश १. करणका लक्षण परिणाम व इन्त्रिय--- रा, वा.६।१२।१।५२३।२६ करणं चक्रादि । ब्च्चक्रु आदि हन्द्रिपोंको करण कहते हैं । ५ ঘ. १/१.१,१६/१८०/१ करणाः: परिणामा! । ज्करण हांग्दका अथ प्रिणाम्‌ है । २. हन्द्रियों व परिणामोंकों करण संज्ञा देनेमें हेतु-- ध. ९।१,६-८।४।२१७।५ कधं पररिणामाणं करणं सण्णा । ण एस दोसो, असि-वासीणं व॒सहायतमभावविवक्छाए परिणामाणं करणत्तुब- लंभादो । =प्रश्न-प्रिणामोकी “करण ' यह संज्ञा कैसे हुई 1 उत्तर-- यह कोई दोष नही; क्योकि, असि ( सलबार ) ओर बासि ( बसूला ) के समान साधकतम भावकी विवश्चामेँ परिणामोके करणपन। पाया जाता है । भ. आ./बि./२०/७१/४ क्रियन्ते रूपादिगोचरा विज्ञप्य एभिरिति करणानि इन्द्रियाण्युच्यन्ते कचित्करणदाब्देन । > क्‍योंकि इनके द्वारा रूपादि पदार्थोको प्रहण करनेबाले ज्ञान किये जाते हैं इसलिए इन्द्रियोंको करण कहते हैं । २. दशकरण निर्देश १, दशकरणोंके नाम লিলৃহা गो. कम ./०३७।६६१ बं धुहृष्णकरणं संकममोकट टदीरणा सत्तं । उद्‌- युबसाम णिधत्ती णिकाचणा होदि पिपी ।४३७। ~ मन्ध, उत्कर्ष ण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्व, उदय, उपदाम, निधत्ति अर निःकाचनाये दक करण प्रकृति प्रकृति प्रति संभवे है । २, कम प्रकृतियोंमें यथासम्मद दश करण अधिकार निर्देश गो. क,मु./४४१,४४४/१६३,४६६५ संकमणाकरणुणा णबकरणा होंति सब्ब জাভতা | सेसाणं दसकरणा अपुन्बकरणोक्ति दसकरणा |४४१। अंधु- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश




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