पुरुपार्थसिद्धुपाय | Puruparthasiddhupay

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Puruparthasiddhupay by रायचन्द्र जैन -raychandra jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुरुषार्थसिद्धचपायः । ५ ओर उपचारकथनके ज्ञाने ही दूर होता है, লী मुरूयकथन तो निश्चयनयके आधीन है ओर उपचारकथन व्यवहारनयके आधीन है. निश्रयनय-'साश्रितो निश्चय अथोत्‌ जो स्वाश्रित ( अपने आश्रये ) होता है उसे निश्चयनय कते है, ओर इमीके कथनको मुख्यकथन कहते रै, इसके जाननेमे शशेरदिक अनादि परदरन्योके एकतश्चद्धानरूप अज्ञानमावका अभाव होता है, भेदविज्ञानकी प्रति होती हे तथा स्वं परद्रव्येसे भिन्न अपने इद्ध चैतन्यस्वरूपका अनुभव होता है, और तब जीव परमानन्ददशामे मग्न होकर केवलदशाकी प्राप्ति करता है. जो अक्ञानी- परुष इसके जाने विना धर्ममे छवल्ीन होते है वे शरीरादिक क्रियाकाण्डको उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) जानके संसारके कारणभूत शुभोष्योगकी ही मुक्तिका कारण मानके स्वरूपसे भ्रष्ट होकर ससारमे परिभ्रमण करते है, इसच्यि मुस्यकथनका जानना जो निश्चयनयके आधीन है, परमावश्यक है. निश्चयनयके जाने विना यथार्थ उपदेश भी नहीं हो मक्ता क्योंकि, जो आप ही अनभिज्ञ है वह शिष्यजनोकों किस्ली प्रकार भी नहीं समज्ञा सक्ता. व्यवहारनय--““पर्मधितोत्यवहारः'' जो परद्रव्यके आश्रित हेता है उमे व्यवहार कहते है और पराश्रितरूप कथन उपचारकथन कहलाता है. उपचार कथनका ज्ञाता ॒शरी- रादिक सम्बन्धरूप ससारदशाका जानकर ससारके क्रारण आमख््रव बंधेका निर्णय कर मुक्ति होनेके उपायरूप सवर निज्जरा नत्त्वोमे प्रवृत्त होता है. परन्तु जो अज्ञानीजीव इस ( न्यवहारनय ) को जाने बिना शुद्धोपयोगी होनेका प्रयत्न करते है, वे पहिले ही न्यवहारसाधनकों छोड पापाचरणंमे म्न हो नरकादि द.खेमें जा पढ़ते है, इसलिये व्यवहारसाधनके ( मिसके आशान उपचार कथन है ) जानना परमावश्यक है. सारांश उक्त दोनों नयोके माननेवाले उपेशक ही सच्चे धममतीथके प्रवत्तेक होते है. निश्चयमिह भृतार्थ व्यवहारं वणयन्त्यम्रताथेम । भूतार्थबोधविमुखः प्रायः सवोँऽपि संसारः ॥ ५॥ अन्वयाथो--आचाय इन दोनो नयेमेसे, [ इह ] इप्तसमय [ निश्चये ] निश्चयनयको { भूतार्थं ] मूताथं ओर [ व्यवहारं ] व्यवहारनयको [ अभूतां ] अभूताथं [ बणेयन्ति ] वर्णन करते है. [ भायः ] बहत करके [ भूताथंवोधविघुखः | मूताथ॑ अथात्‌ निश्चयनयके ज्ञानसे विशुद्ध नो अभिप्राय ই; वे [ सर्वोऽपि ] समस्त ही [ संसारः | सप्ारस्वरूप रहै. १ जिम हव्यके अस्तित्वम्‌ ८ मोजूदगीमे ) जा भाव पाय जावे, उसी दरन्यमे उसीका स्थापन कर परमाणु मात्र भी अन्य कल्पना नहीं करनेको स्वाश्रित कहते हैं २ किचित्‌ मात्र कारण पाकर क्रंमी द्रन्यका भाव किसी दरन्यमे स्थापन करनेको परानित कहते दै,




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