शिवसंहिता | Shri Shiv Sanhita
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6.04 MB
कुल पष्ठ :
154
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पट १, 3 भाषा्टीकासादिता 1 (५
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रवरगेमेंभी दुम्ख है इस कारणसे कि उस स्थानमें परखीका
दशन अवश्य होता है। उसकी अप्रापतिभें मानसिक व्यथा
उत्पन्न होती हे अन्यभी रागदेवादि बहुतसे कारण हैं कि भा-
णीके चित्तको स्वर्गेमेंभी स्थिर नहीं रहने देते इस हेठुसे संसा-
रमें सिवाय दुः्खके सुख नहीं है॥ २८ ॥
तत्कम कटपकेः प्रोक्त॑ पुण्यपापमिति द्रिधा ।
पुण्यपापमयो बन्धो देहिनां भवति क्रमात् ॥ ९९ ॥
कल्पसूचादिकस ( डाद्धिमान लोगोंने ) पुण्य और पाप दो
प्रकारका कमें कहा है इसी पुण्यपापसे शरीर बन्धायमान हैं
अथोत वारंवार शरीर धारण करनेका कारण है ॥ २९ ॥
इहासुत्र फंठद्रेपी सफल कम संत्यजेत्त् ।
नित्यनेमित्तिके सड़॑ त्यक्त्वा योगे प्रवततते ॥ डे० ॥
इस ठोकका भोग वा परलोकके फलकी इच्छा और नित्य
नैमित्तिक आदि कर्माको फछठ सहित त्यागकें योगाभ्यास अथांद
परब्नके विचारमें महात्मा जनोंको तत्पर रहना उचित है ३ ०
कर्मकाण्डस्य माहात्म्यं ज्ञात्वा योगी त्यजेत्सुधीः ।
पुण्यपा पद्टयं त्यक्त्वा ज्ञानकाण्ड प्रवर्तते ॥ ३३ ॥
क्मेकाण्डके माहात्म्यको जानके योगीकों उाचेत हे कि
पुण्य पाप दोनोंको तृणव्त विचारके त्याग दे और ज्ञानका-
ण्डमें तत्पर हो रहे ॥ ३१ ॥ :
आत्मा वा रे च श्रोतव्यो मंतव्य इति यच्छततिभ
सा सेव्या तत्प्रयत्नन सुक्तिदा हेतुदायिना ॥ ३९ ॥
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