शिवसंहिता | Shri Shiv Sanhita

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पट १, 3 भाषा्टीकासादिता 1 (५ थे , ९३ ३९३७ ३९९७ ६३: ३३३३ ३३९३६. दे के के दे ३३ ३९३ ७३३१३ ३३१ के, हे के क ३३३ ९३९ रवरगेमेंभी दुम्ख है इस कारणसे कि उस स्थानमें परखीका दशन अवश्य होता है। उसकी अप्रापतिभें मानसिक व्यथा उत्पन्न होती हे अन्यभी रागदेवादि बहुतसे कारण हैं कि भा- णीके चित्तको स्वर्गेमेंभी स्थिर नहीं रहने देते इस हेठुसे संसा- रमें सिवाय दुः्खके सुख नहीं है॥ २८ ॥ तत्कम कटपकेः प्रोक्त॑ पुण्यपापमिति द्रिधा । पुण्यपापमयो बन्धो देहिनां भवति क्रमात्‌ ॥ ९९ ॥ कल्पसूचादिकस ( डाद्धिमान लोगोंने ) पुण्य और पाप दो प्रकारका कमें कहा है इसी पुण्यपापसे शरीर बन्धायमान हैं अथोत वारंवार शरीर धारण करनेका कारण है ॥ २९ ॥ इहासुत्र फंठद्रेपी सफल कम संत्यजेत्त्‌ । नित्यनेमित्तिके सड़॑ त्यक्त्वा योगे प्रवततते ॥ डे० ॥ इस ठोकका भोग वा परलोकके फलकी इच्छा और नित्य नैमित्तिक आदि कर्माको फछठ सहित त्यागकें योगाभ्यास अथांद परब्नके विचारमें महात्मा जनोंको तत्पर रहना उचित है ३ ० कर्मकाण्डस्य माहात्म्यं ज्ञात्वा योगी त्यजेत्सुधीः । पुण्यपा पद्टयं त्यक्त्वा ज्ञानकाण्ड प्रवर्तते ॥ ३३ ॥ क्मेकाण्डके माहात्म्यको जानके योगीकों उाचेत हे कि पुण्य पाप दोनोंको तृणव्त विचारके त्याग दे और ज्ञानका- ण्डमें तत्पर हो रहे ॥ ३१ ॥ : आत्मा वा रे च श्रोतव्यो मंतव्य इति यच्छततिभ सा सेव्या तत्प्रयत्नन सुक्तिदा हेतुदायिना ॥ ३९ ॥




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