जैन दर्शन और संस्कृति का इतिहास | Jain Darshan Aur Sanskriti Ka Itihas
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
474
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)तिच
१३. प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखन में अनेक लेखकों के त्रभ्थों का उपयोग विवि नधे
है जिनमें से सर्वश्री स्व. डं. हीरालाल जेन, पं. सुख़रारू संषवी,
कैलाशचन्द्र शास्त्री, दछसुल मालवणिया, स्व. महेन्द्र ढ्रमार न्यायवा,
दरबारी लाल कोठिया, मोहनलाल मेहता, मुनि नथमल विशेष उल्लेखनौय हूँ।
जैन मूतिकला और स्थापत्यकला के लिखने में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित
जैन स्थापत्यंकला का भी उपयोग किया गया है। इन सभी विद्वानों और
संस्थाओं के प्रति में अपनी कतज्ञता व्यक्त करता हूं।
ग्रन्थे के भन्ति में मेते प्लेट्स देना आवश्यक समझा । एदर्थ श्री. गणेश
ललवाणी, संपादक जैन जर्नल, कलकत्ता से निवेदन किया और उन्होंने बड़ी सरलता
ओर उदारतापूर्वक चबालीस फोटो ब्लाक्स भेज दिये । इसी तरह शी. वुभेरू्बना
जेन, सन्मति प्रसारकं मण्डल, सोलापुर से भी सति ब्लाक्स प्राप्त हो गये। थी.
बालचन्द्र, उप-संच।लक, रानी दुर्गावती संग्रहालय, जबलपुर, डॉ. सुरेश
जेन, लखनादोन, अन्तरिक्ष पा्वंनाथ संस्थान, शिरपुर तथा नागपुर संग्रहालय
से भी ब्लाक्स उपलब्ध हो गये। डॉ. गोकुलचन्द्र जैन, वाराणसी ने
अमेरिकन एकेडेमी से कुछ फोटो भी लेकर भेज दिये । हम अपने इन सभी मित्रो
के स्नेहिल सहयोग के लिए अत्यन्त आभारी हं । पर दुःख यह है कि हम इन
फोटो न्लाकूस का अर्थाभाव के कारण अधिक उपयोग नही कर सके ।
१४. इस पुस्तक का “पुरस्कार हमारे कुलगुरु डां. दे. य. गोहोकरने लिखकर
हरमे प्रोत्साहित किया है । इसी प्रकार डां. भजय मित्र॒ शास्त्री, प्राघ्यापक और
अध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातच्व, नागपुर विश्वविद्यालय
ने प्राकृथन लिखकर मुझे उपक्ृत किया। डॉ. मधुकर आपष्टीकर, भूतपूर्व
अधिष्ठाता, कलां संकाय, श्री. शिवचन्द्र नागर, अधिष्ठाता, कला-संकाय,
श्री. गोवर्धन अग्रवाल एवं श्री. प्रो. वा. मो. काठमेष, आदि विद्वान मित्रों की
समय-समय पर प्रेरणा मिलती रही । उसके लिए हम उनके आभारी है ।
१६. प्रस्तुत पुस्तक का प्रकाशन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग हारा
प्रदत्त अनुदान से हो रहा है । अतः उसका सहयोग भी अविस्मरणीय है । मैं अपनी
पत्नी डॉ. पुष्पलता जैन, एम्. ए., पीएच्. डी. के भी अनेक सुझावों से लाभान्वित
हुआ हूँ। श्री. क. मा. सावंत, व्यवस्थापक, विश्वविद्यालय प्रेस का भी मधुर
व्यवहार कार्य की शीघ्रता में कारण बना। अतः इनं सभी का कृतनर हुं ।
१६. लेखक ने अपनी इस कृति को १रमपूज्या मां श्रीमती तुलसीदेबी जैन को
समपित किया है। उसकी प्रगति में उनका अमूल्य योगदान है। उनके
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