ठाकुर ठसक | Thakur Thasak

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Thakur Thasak by लाला भगवानदीन - Lala Bhagawandin

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( € ) बुलार उङ्करजी वंदेखनर्ड के अण्य राजाओं के दरबार में भी जाया आया करते थे। बांदेवासे द्िस्मतबहादुर गोसांई ठाकुर की कविता का बड़ा आदर करते थे ओर कभी कभी अपने द्रबार कवि पश्माकर जो से उन्हें भिड़ा देते और फिए दोनों कवियों की बुद्धिनलसा का तमाशा देखते। विसेष बातें । १--एक समय हिस्मत बहादुर के द्रवार में पश्माकर जी ओर ठाकुर दोनों मौजूद थे | रसमय छेड़ छाड़ की इच्छा से हिस्मत बहादुर ने पशञ्माकर ही से पूछा कि किये कविजी छाल; ठाकुर दास जी की कविता कैसी होती है। पद्माकर ने कदा गोसाईं जो छाछा साहब की कविता तो अच्छी द्ोती है । परन्तु पद कुछ दलके से जँचते हें! | ठाकुर ने तत्काल जवाब दिया कि 'इसी से तो हमारी कविदा उड़ी २ फिरती है।' चाहरे गुरू ! वास्तव में ऐसा ही है। भारतवर्ष के इस सिरे से उस खिरे तक, जिस सूबे में जहां कद्दीं हिन्दी भाषा रसिक जनों से पूछिये ठाकुर की कविता कुछ न कुछ अवश्य स्मरण होंगी। इतना ही नदीं वरम्‌ अन्य अन्थकारों ने अपने अपने ग्रन्थों में उचित स्थान पर इनकी कविता प्रशण रूप से लिखी है। पद्माकरः की कविता को अभी तक यह सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ 1 कविता मर्मश छोग कवि ओर कविता की परिभाषाओं को लिख गए हैं कि कवि वह है जिसके चित्त परः प्राकृतिक भावों का अर्थात्‌ दुःख सुज्ादिक का प्रभाव विशेष रूप से पड़े ओर जैला सुख -दुख यद स्वर्य अनुभव करे ठीक वैलाही दूसरों को समझा देने की सामर्थे उनद भाषा में हो । जिसके चिस पंर ऐसा प्रभव पड़े बह कलि द ओर जिस कविता में यह सामथं दो वह कषिता है। ऐसा स्वभाव ठाकुर का था और उनकी माषा




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