सन्तुलन | Prabhakar
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
190
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१० सन्छलन
लेख समाप्त करूगा--
१, नोतों मानता था कि हमारी धर्म-संस्था, नीतिमक्ता, दशनशास्त्र सव श्रधो.
गति की अ्रवस्था में है | ऐसी स्थिति में एक ही उपाय-योजना हे---'कला' !
२, इब्सन का कथन है कि जीने का अर्थ हे उन दत्यो से सतत युद्ध जो हमारे
मन और बुद्धि को आराच्छन्त कर डालते हें; श्रौर लेखन का भश्रर्थ है खुद को बुलाना
और कहना कि इस लड़ाई में निर्णायक का काम करो ।
३. अ्रनातोल फ्रान्स कहते थे कि उनको एक किताब में इतने उपन्यास हैं
जितने कि पाठक--प्रत्येक व्यक्ति के अनुसार उनकी पुस्तक का परिराम भिन्न
रहता हे ।
४. पॉल वेलेरी ने अपने पात्र के मुँह से कहलवायथा हे--कला मात्र रचि-
निर्भर हे । कलाकार तो वहाँ से श्रारम्भ करता हे जहाँ परमात्मा भी उक जाते है।
५. कॉलरिज का यह मत भी हमे ध्यान से रखना चाहिए कि सच्ची कलाकृति
तो वह है जिसमें पाठक निरी यान्त्रिक प्रक्रिया से या मंजिल के कुतृहल से परिचालित
होकर न चले वरन् रचना के रसग्रहण की यात्रा से पग-पग पर- वह श्रानन्दास्वाः
लेता चले।
६. कलाइव बेल अ्रपनी 'कला' नामक पुस्तक से कहते हु कि समाज कलाकार
को प्रत्यक्ष रूप से, श्रतः कला श प्रपरतयक्ष रूप से प्रभावित करता हैं। विश्व के सब
कलादंत याचक बनें, क्योंकि कला और धर्म को पेशा नहीं बनाया जा सकता । पेश्ञा
बनाकर उन्हें नष्ट श्रवश्य किया जा सकता है। सच्चे कलाकार कला को पेशा इस-
लिए नहीं बनाते कि वे रचना करने के लिए जीते हैं, जीने के लिए रचना नहीं
करते ।
७. श्रल्ड्स हकक््सले ने अपने “वड स्वर्थ यदि उष्ण-कटिबन्ध में होते तो' नामक
निबन्ध में काव्य और भोग परस्पर विपरीत वस्तुएँ हैं ऐसा मानने वाले पाकपरस्त
आालोचकों को बड़ो श्रच्छी फ़ब्तियाँ सुनायी ह---ब्लेक कवि ने मिल्टन के विषय में
कहा था कि वह कवि न होकर श्रनजान रूप से शेतान का साथी है । प्रत्येक मनुष्य
में ऐसा ग़रीब शैतान रहता है जिसको सब ओर से सहायता और अनुमोदन को
भ्रावश्यकता होती है । कलाकार इस हतान का स्वाभाविक प्रतिपादक हं । मुभे उस
टॉल्स्ट्रॉय पर दया आती हैं जो केवल उपदेशक बना रहा।
८. जमेन क्रवि गेठे ने कवियों में दो तरह के साहित्य-विलासी (डिलेताँते) माने
हें--एक तो वे जो काव्यात्मा व्यक्त हो जाय इतन? हो काफ़ी समभते हैं और
काव्यरूप की उपेक्षा करते हें; दूसरे वे जो काव्यहूप की बारीकियों में यात्री সাজ-
झलंकारादि में उलऋकर काव्यात्मा की ह॒त्या करते हैँ । दोनों की कला अश्रसर्फल है ।
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