हिन्दी जैन - भक्ति काव्य और कवि | Hindi Jain - Bhakti Kawya Aur Kavi

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Hindi Jain - Bhakti Kawya Aur Kavi  by प्रेमसागर जैन - Prem Sagar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भर हिन्दी जन सक्ति-काब्य और कावि गुहओका जीवन-वृत्त उपस्थित किया है। ऐसी ही एक वेलि 'जयति पदवेलि” आदि साधुकीतिगीत” ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रहमे छप चुकी है। प्रसिद्ध हीरविजय- सूरिको लेकर कवि सकलचन्द्रने 'हीरविजययूरि देशनावेलि' का निर्माण राज- स्थानीमे किया धा । कथानकोकों लेकर चलनेवाली वेलियोमे चन्दनबाला-बेलि', स्थूलभट्र-कोशा रस वेलि' और “नेमीसुरको वेलि' अधिक प्रसिद्ध है। हिन्दीके कवि ठकुरसी ( १५७८ ) वेलियोकी रचनामे निपुण थे। उनकी 'ंचेन्द्रिय वेलि! समूचे वेलि-साहित्यम उत्तम मानी जाती हैं। उसका তরৃহয তঘবহা-দকক ৪; किन्तु ऐसे सरस ढंगसे लिखी गयी है कि उसमे संवाद-जन्य नाटकीय रस उत्पन्न हो उठा हैं। बह रसकी पिचकारी-सी प्रतीत होती ह) इसके अतिरिक्त उन्होने 'नेमोसुरकी वेलि' और 'गुणवेलि' भी रची। हर्षफोति (१६८३ ) ने भी 'पंचवेलि', 'पच्गति- वेछ्ि' ओर्‌ 'चतुर्गतिवेलि' की रचना की। वे हिन्दीके एक सामर्थ्यवान्‌ कवि थे । कवि छीटल ( १६दी घतो ) राजस्थानी कवि थे। उन्होंने राजस्थानी और हिन्दी दोनाम लिखा | वे जन्मजात कवि थे। उन्हें ईश्वरप्रदत्त प्रतिभा मिली थी । उनका देटि भी एक प्रसिद्ध कृति हैं। जैन कवियोका वेलियोमे 'भव-सम्बाधन' तो था हो, भवितका स्व॒र॒भी प्रबल था, बल्कि उसीमे वे इबी थी। विविध ढालोमे किरी जानक कारणं उनका बाह्य कलेवर भी भन्य ह । उपदेशकरो भावता- के सचिमे जैसा जैन कवियोने ढाला, अन्य नहीं ढाल सके । इस ग्रन्थका दूसरा अध्याय मध्यकालीन जैन भक्त-कवियों और उनके जीवन- वृत्त मौर साहित्यस सम्बन्धित है 1 पण्डित रामचन्द्र शुक्लने हिन्दोका भक्ति-काल वि० सं० १४०० से {१५०० तक माना ह । किन्तु यह्‌ मान्यता कठोर नही थी । उनके अनुसार एक ही युगमें विशेष प्रवृत्तिके साथ-साथ अस्य रुचियाँ भी चरूती ही रहती है। इसके अतिरिक्त यह भी सच है कि पं० शुक्ल जैन रचनाओसे बिलकुल परिचित नहीं हो पाये थे। अभी विविध भण्डारोंमे हिन्दीकी जैन कृतियोकी खोज करते समय विदित हुआ किं हिन्दीकी जेन भक्तिपरक प्रवृत्तियाँ वि० स॑० ९००से १९०० तक चलतो रही। आचार्य बेवसेनके शआ्रावकाचार में देशभाषाऊ दर्शन होते हैं। “जा जिणसासण मासियड, सो तरि पावद पारू। इस कश्रनकों सिद्ध करता हैं। यह “श्रावकाचार का दोहा है । इसमे प्रयुक्त शब्द, रूप, विभवित और धातुरूप प्राय. सभी देशभाषाके है। डॉ० काशीप्रराद ओसवालने लिखा है कि यह 'भ्रावकाचार के भी पहलेसे ही प्रचलित हो चुकी थी। धर्मशास्त्री नारदने संस्कृतैः प्राकृतेवक्थिय: शिष्यमयु रूपत: । देशमाषाशुपायेदव बोधयेत्‌ स गुरः स्रः । ' पद्यके दारा देशभाषाका पहले ही उत्टेख किया




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