मंदिर | Mandir

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Mandir by श्री हरिकृष्ण प्रेमी - Shree Harikrishn Premee

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सेवा-मन्दिर ५ सच कहती हूँ, माधव, यह फूल अभी तक पवित्र हे । उस तपेदिक के मरीज़, कुलीन ब्राह्मण ने इसपर अपने ओठ नहीं लगाये हैं । तुम इसे अपनी पूजा मे लेलो । माधव- तुम हिन्दू नारी হী! राधा--नहीं, में एक दुबंल नारी हूँ। मुझे भूख लगती है। मुझे प्यास लगती है | मुझे भोजन चाहिए, मुझे पानी चाहिए | त॒म मेरे हृदय की भूख मिटा, माधव ! तुम मेरे प्राणों की प्यास मिटाओ, नहीं तो. . .. . . माधव--नहीं तो ! राधा--नहीं तो में गंदे नाले का पानी पिऊँगी। में पिशाचिनी हो जागी । संसार सोने के घड़े में विष लेकर खड़ा हे, ऐसा विष जो आत्मा को मार डालता हे, काया को नहीं । माधव--राधा ! राधा--माधव ! तुमने बचपन में पेड़ों पर चढ़कर तोड़-तोड़कर फल खिलाये हैं। अब जवान होने पर मुझे भूखों मारोगे ? लेकिन यह काया भूखी नहीं रहना चाहती। जा इसे भूखी रखना चाहते हैं वे प्रकृति के विरुद्ध चलते हँ । पराजित होते हैं। रात्रि के अंधकार में वे अपनी भूख मिटाते हैं । में दिन के प्रकाश में. «« माधव--दिन के प्रकाश में समाज से विद्रोह करना चाहती दो । इतना बल तुममें हो सकता हे, मुझमें तो नहीं हे। मुझे तुम्हारा लोभ बचपन से ही रहा हे। में तुम्हारे अस्तित्व को अपने प्राणों में भरे हुए संसार में वित्षिप्तन्सा घूम रहा हूँ + किसी कार्य में मेरा मन नहीं लग रहा। मेंने समभा था तुम




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