गीता संन्यास या सांख्ययोग | Geeta Sannyas Ya Sankhyayog

Geeta Sannyas Ya Sankhyayog by श्री जयदयालजी गोयन्दका - Shri Jaydayal Ji Goyandka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७ ) आश्रम विशेषपर लक्ष्य नहीं रखकर केवल ज्ञानपर अवरूम्बित है अतएव गौतामें सबका द्वी अधिकार है | में तो यह भी मानता हूँ कि सांख्यनिष्ठाके साधकको संन्यासआश्रमम अधिक सुव्रिधार्‌ है । अक्तु कुछ छोगेंकि मतमें गीताका सांज़्य शब्द मह॒षिं कपिल प्रणीत साख्यदशनका वाचक है परन्तु विचार करनेपर वह बात उचित नहीं माद्धम शती गोताका सस्य कपिल्जौका सांख्यदर्शन नहीं है इसका सम्बन्ध ज्ञानसे है| गीता अ० १३. १९-२ ० प्रकृति पुरुष शब्द आते हैं जो साख्यद्शनसे मिते जुल्तेसे लगते हैं परन्तु बास्तवमें इनमें बड़ा अन्तर है। सांख्यदर्शन पुरुष नाना और उनकी सत्ता मित्र मिन्न मानता है परन्तु गोता एक ही पुरुषके अनेक रूप मानती है। (देखो गीता अध्याय १३. २२; १८. २० गौतामे भूतोंके प्ृथक्‌ प्रथक्‌ भाव एक द्वी पुरुषके साव हैं। सोख्यदशन सृश्टिकर्ता ईश्वरको स्वीकार नहीं करता | परन्तु गीता सृष्टि- कर्ता ईश्वरको मुक्त कण्ठसे स्वीकार करती है | इससे यही सिद्ध होता है कि गीताका सौख्य मदां कपिर्के सांख्यसे मिन्न है। एक वात ओर है ! मोताका ध्यानयोग दोनों निष्ठाओंके साथ रदता है । इसीच्यि सगवानने ्यानयोगको प्यक निष्ठा- के रूपमें नदी कडा । ष्यानयोग, निष्काम कर्पके साथ मेद्‌ २.




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