जनता के बीच | Janta Ke Beech
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
99 MB
कुल पष्ठ :
648
श्रेणी :
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नरोत्तम नागर - Narottam Naagar
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मक्सिम गोर्की - maxim gorki
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)से नीला धआओं छोड़ते हुए जो उसके सिर के चारों ओर मंडरा
रहा था, इत्मीनान के साथ गुनगुन स्वर में बोलता ही गया
“और कौन जाने, खुद तुम्हारे मालिक ने ही मेरे पीछे पड़कर
. मुझे इस बात के लिए उकसाया हो कि जाओ, और मेरे उस छोकरे
की जांच करके देखो कि कहीं वह चोरी तो नहीं करता । बोलो, क्या
करोगे तब तुम?
“में तम्हें जते नहीं दूंगा,” भुंकला कर मेने कहा।
“नहीं, एक बार वचन देनं के बाद तुम अब पीछे केसे
हट सकते हो?” द
उसने मेरा हाथ थाम लिया और मुझे अपनी ओर खींचा। फिर
अपनी ठंडी उंगली से मेरे मार्थे को ठकठकाते हुए बो
“तुम तैयार कैसे हो गये; मानो जूते भेंट करना तुम्हारे
बाएं हाथ का खेल हो ,--कक््यों? क्या मानते हो?”
“खुद तुम्हींने तो इसके लिए कहा था, कहा था न?”
“कहने को तो में दुनिया भर की चीज़ों के लिए कह सकता
हूं। अगर म॑ कहूं कि गिरजे में चोरी करो, तो क्या तुम वहां
चोरी करोगे? इस प्रकार तुम किस-किस के बहकावे में आते रहोगे ,
मेरे नन्हे भोंदू भट! |
... उसने मुझे धकेल कर अलग कर दिया और खड़ा हो गया।
“मुभे चोरी के जते नहीं चाहिये) फिर में ऐसा जैण्टुलमैन
भी नहीं हूं जो जूतों के बिना रह नहीं सकता। में तो मज़ाक कर
र्हा था। तुमने मेरा विश्वास किया, इसलिए में तुम्हें गिरजे के
` घंटेघर पर चढ़ने दूंगा, ईस्टर के दिन आना। तुम घंटा बजा
सकोगे, और नगर का समूचा दृश्य तुम्हें वहां से दिखाई देगा।
द नगर तो मेरा देखा-भाला है।”
“घंटघर से और भी सुन्दर दिखाई देता है।”
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