पर्वत की सैर | Parvat Ki Sar

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Parvat Ki Sar by बसंत कुमार माथुर - Basant Kumar Mathur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परबेत की सैर ^ & - भी न था। हमारे भी गोइन्दे छूटे रहते हैं। हमको रत्ती-रत्ती खबर पहुँचती रहती है । यह न जानना-- _ भ०--इन सब आदमियों को न एकदम से अलग किया हो तो सही | इधर की उधर तगाते हैं। यह तुमसे आकर किसने ? জুন उड़ायी, उस्रका नाम तो बताओ, अभी:अभी, इसी दम न निकाला दो तो सही । बे०--वाह वा ! क्‍या हँसी-ठट्ठा/है, निकाल देंगे। तुम तो घस उन्हीं लोगो से खुश रहते हो जो जेसवाये बुलाये । हुजूर, जगदीश- पुर की एकर देहातिन हैदरगंज मे चान के टिकी है'। अभी कोई चोददनौ' साल है, शरौर चेहरे पर वजो नमकीनो है । वस, दुम खिल गये कि वाह, क्या अच्छा आदसी है. | मैं सब सुना करती. हूं । हमको रत्तो-रत्ती खबर भिलती रहती हैः । तुमने घड़ायी है तो ছল भी भून-भूल खायी है | जबसे मैंने सुना है, कलेजा कॉप- उठा दे । वाह क्यासूमीद्ै।. _ _ ., । अ०--क्रसम खाकर कहता हूँ, सब॑ बातें:ही-बातें है. (जाना और आना कैसा ? हम-मैसे सफ्र के काबिल हैं. भला ! और फिर पहाड़ का सफूर १ हम भला अपने बतन को छोड़कर कब जानेवाले हैं--- क्या दक्गीकत खं की हमसे छुड़ाये लखनऊ । लखनऊ हम पर फिदा है हम फिदाये लखनऊ। पहाड़ फोई ओर ही जाया करते होंगे । । बे०--बन्दी इन वातो मैन माने की। शर क्सम खाच्मोः तो मानूँ। हों, हमारे सिर की कसम खाओ, तो शायद यक्कीन ` ছসা जाये। ৪ अआ०--( भुस्कराकर ) या खुदा ! यह बदगुमानी । बड़ी अछ्- मंद्‌ हो | बस, तुम्हारी अकु आजमा ली। जूरा-सी बात में कोई: इतना रूढ जाता है । , | ४ श 'बै०-- चुटकी लेकर ) यह तुम्हारे नजदीक जरा-सी बात




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