इतिहास साक्षी है | Etihas Sakshi Hai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नारीका पहला दर्शन १२ अञ्च ऋष्यशज्ञ उस दृष्टिपयम साकार हो उठता है। पिताके तपो- बनमे जत्मसे रहते हुए, नगर-गांवके प्रमावसे दूर, उस युवा-बालवने साधारण समारकी वृत्ति नहीं जानो है। उसने नरकके द्वारस्वरूप भारीका स्पर्श तो क्‍या उसका मुखं भो नहीं देखा है। और यदि पृथ्वीपर कोई ऐसा है जो तुम्हारे पुत्रेप्टिका उदित ऋत्विज हो सकता हैं तो बस वही श्गी ऋषि हैँ 1” पर जब ऋषिको स्थिति ऐसो थी कि उसने अपनी युवात्रस्था तक नारीके दर्शन तक नही किये थे तथ भला राजबानीम उसके आनेकी सम्मा- बता ही कहाँ थी ? और गुस्ने कहां भी कि कठिनाई श्यगोको बहसि राजधानीमें छानेको ही हैं; क्योंकि उसने कभी अवतक आधमसे बाहर पं नही डके है मौर उसके पिता तपोघत ऋषिवर उसपर और आशथममे आनेाले महृपियोपर खदा वरुणकी-्सी दृष्टि रखते हैं। उस तपं।वनमें जाते परापकी काया काँपती है, सभी जीव-जन्तु वह जाते अपना ओऔदवत्य और ईदा आश्रमके बाहर छोड जाते हैँ । बँसे कार्य सपेगा, মক बाहना कठिन है। हाँ, एक दी चीज़ है, जो श्गोक्रों इधर छा सकती हैं--रूपवा मोह । पर रूपका मोह तो उसे हूँ नहीं, रूप उसने देखा ही नही । फ्रिर भी बद्दि किसी प्रक्ञार नारी उसके यम-नियमको तोड़ सके तो गम्भवत. हमारा इष्ट सप । अर्थात्‌, पृष्यकों पापकी छायासे होकर तिव- জনা হামা, पुष्यपर पाप द्वारा क्षण भर ग्रहण लगाना होगा, तभी अयीष्पा- की गद्दी राजन्वत्ती हो सर्बेगी । क्रिन्तु आगे यह शत सोच मैं कप उठता हूँ क्योकि पापवी उत्तेजना अपने उपक्रमसे बाहर है । अब तक मैंने 'धर्म' और मोक्ष हो स्पा है, यहे 'काम' कोई ओर हो साधे । महंपिकी बात হাজারী समझमें आयी ! महयि याजमाने उक्र चले गये, राजाने मग्त्रियोकी ओर देखा । एवने सुझाया, वारवनिताएँ यहि वहाँ भेजी जायें और जो वे अपने सारे हाव-भाव, अपनी समूची परेश्याएँ,




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