सांस्कृतिक निबन्ध | Sanskriti Nibandh 

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऋग्वेदफे रोमेण्टिक ऋषि न = भमै कक ऋगवेद प्रौद़ साहित्य होता हुआ भी मनुप्यक्रे आदिम उल्लामती बृति हैं। उसे पढ़ते हुए जैसे हम उसमें घढित जोवनशो छूने छगने हैं, उसके देवी-देवताओं तवको, क्योंकि उनवा छेबास इस्सानी है, उनकी सूरत- दावल इन्सानी है, उनके भाव-विल्यम, प्रेम-द्वेंप मानत्रीय हैं । और क्र खेदके मानव ? सर्वथा जीवितं चरते-फिरते व्यक्ति, जिनके हर्ष-विप्ादरी पुत्र हम सुन लें, जिनको मानवीय दुबंठताएँ सतटपर ही देख छे ॥ ऋग्वेदका जीवन कवित्रा वाता हुआ सूत नहीं, मानवत्रा जिया हुआ जीवन हैं। उममें उसके हारयमे आँसू मिले है। जाय जीवन वैसे भी रोम॑ण्टिक बातावरण पैदा करता है और जव उमके साथ प्रणपत्री स्वच्छन्दतां भो मिली हो तब समाजम ऐसे ब्यक्तियोत्री वी मे होगी जो शबुन्तला और वासवदत्तावों बरें । गरज़ हि भानवजातित्रे उस महानू और तथावरधित पम-्रन्धमे रोमेण्टिक पियो अथवा अन्य ववियोव्र बसी नहीं। प्रस्तुत लेखमे इन रोमेण्टिक ऋषियोमेसे वेवल बुछा उत्छेख करगे । ध्यावाध्व, कशी. वान्‌ भौर विमददा। राहितामे उनका बार-बार उत्टण हमा ह, बार-यार उनके वायकि प्रति सबेत हआ है, साधारण स्पष्ट वर्धन, प्रष्छन्र गगेत, प्रगट उदाहरण, उपमा आदिम सवत्र उनत्रौ ধঘা मादान टपक पह्ती है । ध्यावाध्व दवि था। दंगे हीनो জামিজাতে ঘ, ঙ্গুশ্রিবীর বহি । पौरोहित्य विधदृत्तिसे वैसे ही पृथत््‌ हो चबा था जैसे राजन्प-शकित कृचि- बायगे। सो ध्यावाश्य बवि था, ऋषि-त्र बवि। परनु रुदमे सदमाइसे




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