तत्त्वार्थसूत्र - जैनागम समन्वय पर एक दृष्टि | Tatvarth Sutra Jainagamsamnavya Par Ek Drashti

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Tatvarth Sutra Jainagamsamnavya Par Ek Drashti by बेचरदास दोशी- Bechardas Doshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(११) स्थविरावलि हारा शाखा फ समय पर से बाचक फे समय- सप्यन्धी लो अनुमान हमने श्रिया दै, स्यायाधिगम पर छी गद वाजम समय सर्मरथसिद्ध-दीका से भी उसकी थोडी-बहुत पुष्टि को कट्पनाका होती है! জনন भाष्य को छोड फर तत्त्वाधाधिगम फी जो-जो टीकायें हुई हैं छा समर मे श्रीमान पृज्यपाद की फी हुई उक्त टी स्यसे प्राचीन दै । चूकि पुराविद लोग, सवायै पूज़्यपाद का समय प्िक्स की पाँचनों छठी शनाब्दि मनते है, इस लिए हमारे वाचऊ श्रीमिय्मकी उक्त शताब्दि से पहले पे समय में कभी हुए हेगि, यद यश्य कहा ना सना दै । অহ বিবাহ फरन की थात यद है. कि जब तत्त्वाधाविषम पे डीकाफार पृज्यपाद का समय पिक्रम की पाँचनी-उठी शताब्दि माना जाता है, नो जिस तत्ताथांयिगम सूत की यह टीका है उस सूत्र के अणेता धाचक उमास्वाति उससे करितन पढले हुए होंगे ९ इसका निणय फरत सपय हमे यद চ্যান হেলা होगा कि फोई ओ प्रन्थ टौका, या आछोचना फा पाय तभी हो सकता है जब फि बढ़ पिद्धार्या में यहुत ললিরিল তী जाय और सर्मसाधारण में भादर के साथ उसका अनिप्रचार हो गया हो | हवाई जद्गाज्ञ के इस वैगान समय म भो किसो उदार और रिष्ट प्रन्य फो प्रनिष्ठा प्राप्त करन में सदन द्वी २५-५० बप ख जाते {देषो सत्यथ सृप्र फा पर्विय {पं छपलालनी एव ) 8३, ८०२० |




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