दशवैकालिक और उत्तराध्ययन भाग 1 | dus Vaikalik Uttaradhyayan Vol 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
279
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
आचार्य तुलसी - Acharya Tulsi
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मुनि नथमल - Muni Nathmal
मुनि नथमल जी का जन्म राजस्थान के झुंझुनूं जिले के टमकोर ग्राम में 1920 में हुआ उन्होने 1930 में अपनी 10वर्ष की अल्प आयु में उस समय के तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य कालुराम जी के कर कमलो से जैन भागवत दिक्षा ग्रहण की,उन्होने अणुव्रत,प्रेक्षाध्यान,जिवन विज्ञान आदि विषयों पर साहित्य का सर्जन किया।तेरापंथ घर्म संघ के नवमाचार्य आचार्य तुलसी के अंतरग सहयोगी के रुप में रहे एंव 1995 में उन्होने दशमाचार्य के रुप में सेवाएं दी,वे प्राकृत,संस्कृत आदि भाषाओं के पंडित के रुप में व उच्च कोटी के दार्शनिक के रुप में ख्याति अर्जित की।उनका स्वर्गवास 9 मई 2010 को राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ।
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दुसरा अध्ययन
थ्रामण्यपूबंक
१. बह कंसे श्रामण्य का पालन करेगा जो काम (विषय-“राग) का
निवारण नहीं करता, जो सकल्प के वशीभूत होकर पग-पग पर विषाद-ग्रस्त
होता है ?
२. जो परव (या असावग्रस्त) होनेके कारण वस्त्र, गन्ध, अलकार,
स्त्री और शयन-आसनो का उपभोग नही करता वह त्यागी नहीं कहलाता ।
३. त्यागी वही कहलाता है जो कान्त (रमणीय) और प्रिय भोग उप-
लब्ध होने पर भी उनकी भी ओर से पीठ फेर लेता है और स्वाधीनता पूर्वक
भोगों का त्याग करता है ।
४. समहष्ति पूर्वक विचरते हुए भी यदि कदाचितु मन (सयम से) बाहर
निकल जाय तो यह विचार कर कि वह मेरी नही है और न मैं ही उसका
हूँ” मुमुक्षु उसके प्रति होने वाले विषय-राग को दूर करे।
५, अपने को तपा | सुकुमारता का त्याग कर । काम (विषय-वासना)
का अतिक्रम कर । इससे दुःख अपने-आप अतिक्रात होगा | द्वेप-भाव को छिन्न
कर। राग-भाव को दूर कर। ऐसा करने से तू ससार (इहलॉंक और पर-
लोक) मे सुखी होगा ।
६. अगधन कूल मे उत्पन्न सपं ज्वलित, विकराल, धुमकेतू--अग्नि में
प्रवेश कर जाते हैं परन्तु (जीने के लिए) वमन किये हुए विष को वापस पीने
की इच्छा नही करते ।
७. है यश:कामित् ! घिक्कार है तुझे । जो तू क्षणमगुर जीवन के लिए
बमी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है। इससे तो तेरा मरना श्रेय है।
+ मै भोजराज कीपुत्री (राजीमत्ती) हभौर नतु अधकटृष्णिकापृत्र
(रथनेमि) दै । हम कूल में गन्धन सप॑ं की तरह न हों। तू स्थिर मन होकर
संयम का पालन कर ।
६. यदि तू स्त्रियों को देख उनके प्रति इस प्रकार राग-भाव करेगा तो
वायु से माहत हट (जलीय वनस्पति) को तरह अस्थितात्मा हो जायेगा ।
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