राजशास्त्र के मूल सिध्दान्त भाग 22 | Raajashastr Ke Muul Sidhdaant Bhaag- 22

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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राजशास्त्र के मूठ मिदडान्त अध्याय १२ श्रादशावोद आदर्शवादी सिद्धान्त का आरम्भ पाइचात्य राजशास्त्रवेत्ताओं के मता- नुसार यूनानं से बतलाया जातां ह । परन्तु वास्तव मं आदकशेवाद सिद्धान्त का मूलभूत आधार अति प्राचीनकाल के हिंदू शास्त्र तथा रामायण और महाभारत ऐतिहासिक पुस्तकें हे । हिन्दू धर्म-शास्त्रों में आदर्श राज्य को रामराज्य के ताम से संब्रोधित किया गया हैँ और आदर्श शासक को सदेव धर्मेराज के नाम से पुकारा गया हूँ । 'रामराज्य' और धर्मराज' ये दो शब्द इस बात के प्रतीक हूँ कि अति- प्राचीन काल के मनु, ज्यास, झुक्राचार्य, विदुर, आदि राजशास्त्रवेत्ता, और दार्शनिकों के मतानुसार राज्य तथा राजा दोनों को आदर्श समझा जाता था । इन लोगों का मत है कि राजा दही सब प्रकार के नैतिक, धामिक, तथा सामाजिक जीवन में प्रजा का आदर्श है और प्रजाजन उसका अनुकरण करते हैं । राजा का कतंन्य प्रजा के सन्मुख एक एेसा आदरं जीवन उपस्थित करना था कि जिसका अनुकरण करकं प्रजाजनो की सव प्रकार की उस्नति होसके । राज्य का आदर्श और ध्येय प्रजा की नेतिक तथा राजनेतिक उन्नति करना था । राजा को सदेव इस बात का ध्यान रहता था कि प्रजा कौ आचारिक, बौद्धिक दैहिक तथा आत्मिक उन्नति हो । राज्य के संपूर्ण विभाग इन्हीं उद्देश्यों फे आधार पर कार्य करते थे। यही कारण है कि उस समय नल, नील जैसे यंत्रविद्‌, व्यासमुनि जैसे ऐतिहासिक, कण्व जैसे ऋषि, शुक्राचार्य जैसे राजनीतिज्ञ, शल्य जैसे शल्य-चिकित्सक उत्पन्न हुए | केवल यही नही, उस समय में वायुयान,वाष्प- यान, विद्युत्‌ यंत्र आदि के आविष्कार भी हुए । आद्शवाद सिद्धान्त का ध्येय मनुष्य की आत्मिक, आध्यात्मिक, तथा नतिक उन्नति करना है । इसी लिए कुछ विद्वानों ने इस सिद्धान्त को आध्यात्म- वाद सिद्धान्त, दाशेनिक सिद्धान्त, और रहस्यवाद के नाम से संबोधित किया हैं ! <स विचार से कि श्रेष्ठ राजा ही प्रजा का आदशें होता है और ऐसे हो राजा के रामराज्य में प्रजा की सब प्रकार की उन्नति हो सकती है प्राचीनकाल में आदर्श- वाद को पूर्ण स्वैरितावाद के नाम से भी संबोधित किया गया है । प्राचीनकाल क॑ पाश्चात्य राजशास्त्र दाशनिकों मैं प्लेटो और अरर्त




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